पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/३९

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बिछौने के नीचे जो पत्ते बिछाये हुए थे, उन्हें समेट कर उसने आग सुलगाई और अपना हुक्का तैयार किया। रात को जो भात बच रहा था, उसी का कलेवा किया और पत्ते के दोनों में जो ओस जमा की थी, उसी को पीकर उसने अपना सब सामान अधारी में रख लिया। रास्ता चलने के पहले मक्के-शरीफ की तरफ मुँह फेर कर उसने भक्तिपूर्वक नमाज पढ़ी और राह में अपनी रक्षा करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करके सामान काँधे पर उठाया और धीरे-धीरे चलने लगा।

अनजान प्रदेश, जंगल का रास्ता, और साथ में कोई भी नहीं, ऐसी स्थिति में अकेले चलते-चलते बटोही का जी घबरा उठा। रात्रि का स्वप्न और उस दिव्य पुरुष का भविष्य-कथन बारंबार उसके मन में आने लगा। उसे इस बात का पूरा भरोसा हो गया कि बेशक मुझ पर परमेश्वर की कृपा है, उसी की यह आज्ञा समझना। परंतु वह फिर भी सोच करने लगता कि जो मनुष्य इस देश में बिलकुल अनजान है, जिसे इस दुनियाँ में रहने के लिए न तो कोई मकान और न कोई ठिकाना है, जिसे इस संसार में किसी का आधार भी नहीं––वह, वह यःकश्चित् गरीब प्रवासी, गजनी ऐसे बलाढ्‌य राज्य का अधिपति हो जायगा––यह बात कैसे संभवनीय हो सकती है? रंक से राजा होने का अनुभव स्वप्न ही में मिलता है। जो बात प्रत्यक्ष देखने में कभी नहीं आती, वह स्वप्न भी इस प्रकार होगा––ऐसा सोचकर उसका मन किंचित् सशंक हो गया। तथापि यह कितना भी असंभव क्यों न हो, इसमें परमेश्वर का चमत्कार है, इस बात की कल्पना उसके मन में दृढ़तर समा गई थी।

(दूसरा भाग)

पथिक ऐन जंगल में से चलते-चलते उस जगह पर पहुँचा जहाँ दिन-दोपहर को अँधेरा मालूम होता था। उन झाड़ी के मध्य भाग में