पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/४०

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(४३)

जब आया, तब वहाँ उसे मनुष्यों की आवाज सुनाई देने लगी। कुछ आगे बढ़कर देखता है तो आठ आदमी आग जलाकर उसके आसपास बैठे भोजन कर रहे हैं। उनको खाते देख यह प्रतीत होता था कि वे कई दिन से भूखे हैं, क्योंकि वे अघोरी की नाईं सपाटे से निगलते चले जाते थे। यह देख बटोही के मन में शंका आई कि हो न हो, अब शत्रु से गाँठ पड़ी। पर क्या करें? पीछे लौट नहीं सकता, क्योंकि उसको उन्होंने देख लिया था। इसलिए हिम्मत करके आगे बढ़ा और उनसे पड़ाव की जगह पूछने लगा। उनमें से एक ने हँसकर कहा––

"भला, यहीं रह जाओगे तो क्या नुकसान है।" इस पर उन दोनों में बातचीत होने लगी। पथिक ने कहा––

"नहीं, मुझे आगे जाना है। अगर तुम रास्ता बतलाओ तो ठीक है, नहीं तो सेंत-मेंत बड़चड़ करने की मुझे फुरसत नहीं।"

"अच्छा, लेकिन जो लोग इस जंगल में से आते-जाते हैं, वे यहाँ अपनी रक्षा के लिए कुछ महसूल दिया करते हैं। यह बात तुम्हें मालूम है या नहीं?"

"तुमसे सहायता लेने की मुझे कोई गरज नहीं है। इसलिए मैं तुमको एक कौड़ी भी न दूँगा।"

"सुनो! हम यहाँ पर आठ आदमी हैं। क्या तुम इनके साथ पुर सकोगे? जरा नरम होओ और कुछ ख्याल करो कि तुम कहाँ हो? ऐंठ की बातें तो न करो। जब कभी मौका लग जाता है तो हम लोग अपना हक राजा पर भी चला लेते हैं। सच पूछो तो यहाँ के राजा हम ही हैं। तुम्हारा किया कुछ भी न हो सकेगा। सीधी तरह जो कुछ तुम्हारे पास है, चुपचाप हमारे स्वाधीन करो। और वह रास्ता दिखाई देता है, उधर से चले जाओ। नहीं तो तुम्हारे जी पर बीतेगी। समझे? याद रक्खो कि जिस काम को हम अपना हाथ लगाते हैं, उससे फिर पीछे कभी नहीं लौटते?"