पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/४१

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(४४)

"तो क्या मैं लुटेरों के फन्दे में पड़ गया हूँ?"

"इसमें क्या शक, कहो तो फिर क्या कहना है?"

"अब यही कहना है कि साम्हने से हट जाओ। मैं तुम्हारी कभी न सुनूँगा। इस बात को खूब सोच रक्खो कि सिर्फ आठ ही नहीं, तुम्हारे सरीखे सौ लुटेरे भी आ जायें, तो मैं अकेला उनके लिए बस हूँ। क्या मुझे अकेला समझ कर डराना चाहते हो?"

वह चोर अपने साथीदारों की तरफ देखकर जोर से हँसा और फिर बोला कि––

"यह भला आदमी सीधी बातों से नहीं मानता। इसे थोड़ी सी खुराक मिले तो ठीक होगा।" फिर उस पथिक की ओर लौटकर कहने लगा––

"अरे, इधर आ, मेरे साम्हने तो खड़ा रह। अपना सामान नीचे धर दे, और चल दिखला तो सही तुझमें कितना दम है। मैंने तो तुझे पहिले ही कह दिया कि तुझे अपना जीव प्यारा है तो हमारी बात मान ले। क्यों, सुनता है कि नहीं?"

"यहाँ जीव की पर्वाह किसको है! मैं तो उसकी कुछ कीमत ही नहीं समझता। खुदा का इरादा होगा तो मैं मरने को अभी तैयार हूँ। पर जब तक जीता हूँ, अपना माल तुम्हें न छूने दूँगा। सुख क्या चीज है, यह तो मुझे आज तक मालूम भी नहीं, और न कभी आगे जानने की कोई उम्मीद ही है, फिर भी मौत से क्यों डरूँ? मैं जानता हूँ कि तुन हरामखोर हो, तुम्हें दया-माया छूकर भी नहीं निकली। चलो देखूँ तो सही, तुम क्या कर सकते हो मेरा?" ऐसा कहकर वह पथिक एक झाड़ से टिक गया और अपना सामान नीचे उतार कर हाथ में तलवार ले खड़ा रहा।