पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(४६)

होकर उसको अपने सामने खड़ा किया और उनका नायक कहने लगा––

"क्यों भाई! कहो, तुम्हें हमारा धंधा पसंद आया है या नहीं। इस धंधे में मनुष्य को बहुत चालाक और होशियार रहना चाहिए। तुम तो अच्छे, मोटे-ताजे, मजबूत, शूर जवान दिखाई देते हो। अगर हमारे साथ रहना चाहते हो तो कहो?"

प्रवासी ने कहा––"मैं बड़ा धूर्त हूँ। अगर तुम मुझे अपने बेड़े में रखना चाहते हो तो रक्खो। पर मैं यह नहीं कह सकता कि मैं तुमसे विश्वासघात कभी नहीं करूँगा।"

"कुछ हरज नहीं, हम तुमको अपने बेड़े में शामिल करते हैं, विश्वासघात करना शूरों का काम नहीं है। तुम पूरे शूर हो, इसीलिए हम तुम्हारा विश्वास करते हैं।"

"अगर ऐसा ही है तो समझता हूँ कि तुम्हारे समान मूर्ख कोई भी नहीं। शूर पुरुष सदैव सम्माननीय होते हैं। ऐसे डाकुओं पर विश्वास रखना शूरों का काम नहीं है। यदि मैं तुम्हारा विश्वास मानकर चुपचाप बैठा रहूँ तो मुझे निरपराधी मनुष्यों को दुःख देने का पाप लगेगा।"

"तुम इतने ईमानदार होगे, यह बात हमें मालूम न थी। इतना अलामत जानते कि तुम बड़े शूर हो। पर अब हमें ऐसा जान पड़ता है कि तू न तो ईमानदार है और न शूर। सिर्फ ढोर चराना या घोड़ा मलना या गुमाबी करना, यही तेरा काम है, बस अभी थोड़ी देर में तुझे तेरे लायक धन्धा मिल जायगा।"

बटोही के दोनों हाथ बँधे हुए थे। उन्हीं को ऊपर उठाकर कहने लगा––