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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१०४

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परीक्षा नादिरशाह को सेना ने दिल्ली में करले-आम कर रखा है। गलियों में खन को नदिया मह रही है। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है। बाजार बन्द हैं । दिल्ली के लोग घरों के द्वार चन्द किये जान को खैर मना रहे है। किसी को जान सलामत नहीं है। वहीं घरों में आग लगी हुई है, कहीं बाज़ार लुट रहा है, कोई शिसो को फ़रि- याद नहीं सुनता। रईसों को वेगमें मतों से निकाली जा रही हैं और उनकी बेहुर- मती की जाती है। ईरानो सिपहियों को रज-पिपासा किसी तरह नहीं बुझती। मानव-हृदय को क्रूरता, कठोरता और पैशाचिकता अपना विकरालतम रूप धारण किये हुए है। इसी समय नादिरशाह ने वादशाही महल में प्रदेश किया। दिल्ली टन दिनों भोग-विलास का केन्द्र पनी हुई थी। सजावट और तकल्लुफ के सामानों से रईसों के भवन अटे रहते थे। स्त्रियों को पनाव-सिंगार के सिवा कोई काम न था । पुरुषों को सुख भोग के सिवा मोर कोई चिन्ता न थो। राजनीति का स्थान शैर-शायरो ने ले लिया था। समस्त प्रान्तों से धन खिच-विचार दिल्ली आता था, और पानी की भाति वाया जाता था। वेश्याओं को चाँदी थी। वहीं तीतरों के जोड़ होते थे, कहीं बटेरों और बुलबुलों की पालिया निती थीं। साश नगर विलास- निद्रा में मग्न था । नादिरशाह शाहीमहल में पहुंचा तो वहां का सामान देखकर उसकी आँखें खुल गई । उसका जन्म दरिद्र घर में हुआ था। उसका समस्त जीवन रणभूमि म हो कटा था । भोग-विलास का उसे चसका न लगा था। कहा रणक्षेत्र के कष्ट और कहाँ यह सुख-साम्राज्य । जिधर भाख ठती थी, उधर से हटने कानाम न लेती थी। संध्या हो गई थी। नादिरशाह अपने सरदारों के साथ महल की सैर करता और अपने पसन्द की चीजों को स्टोरता हुजा दीवाने-जास में आकर कारचोपी मसनद पर बैठ गया, सरदारों को वहां से चले जाने का हुक्म दे दिया, अपने सबहथियार खोल- कर रख दिये और महल के दारोगा को बुलाकर हुक्म दिया- मैं शाही वेगमों का नाच देखना चाहता हूँ। तुम इसी वक्त उनको सुन्दर वस्त्राभूषणों से सपाकर मेरे सामने लागो । खबरदार, परा भी देर न हो। मैं कोई नया इनकार नहीं सुन सकता।