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दारोगा ने यह नादिरशाही हुक्म सुना तो होश उड़ गये। वह महिलाएं जिन
पर कमी सूर्य की दृष्टि भी नहीं पड़ी, कैसे इस मजलिस में आयेंगो! नाचने का तो
कहना हो षया ! शाही बेगमों का इतना अपमान कभी न हुआ था। हा नरपिशाच !
दिल्ली को खून से रँगकर भी तेरा चित्त शान्त नहीं हुआ। मगर नादिरशाह के सम्मुख
एक शब्द भी जबान से निकालना भग्नि के मुख में कूदना था । सिर झुकाकर आदाब
बजा लाया और भाकर रनिवास में सब बेगमों को नादिरशाही हुश्म सुना दिया ;
उसके साथ ही यह इत्तला भी दे दी कि जरा भी ताम्मूल न हो, नादिरशाह कोई उज्र
था हीला न सुनेगा । शाही खानदान पर इतनी बड़ी विपत्ति कभी नहीं पड़ो, पर इस
समय विजयो बादशाह की आज्ञा को शिरोधार्य करने के सिवा प्राण-रक्षा का अन्य
कोई उपाय नहीं था।
बेग्रमों ने यह आज्ञा सुनी तो हत-बुद्धि-सी हो गई। सारे रनिवास में मातम-
सा छा गया। वह चहल-पहल गायब हो गई । सैकड़ों हृश्यों से इस अत्याचारो के
प्रति एक शाप निकल गया। किसी ने भामाश को और सहायता-याच लोचनों से
देखा, किसी ने खुदा और रसूल का सुमिरन किया। पर ऐसी एक महिला भी न थो
जिसकी निगाह कटार या तलवार की तरफ गई हो। यद्यपि इनमें कितनी ही बेगमों
के नसों में राजपूतनियों का रक्त प्रवाहित हो रहा था, पर इन्द्रियलिप्सा ने 'जुहार' को
पुरानी भाग ठडी कर दो थी। सुख-भौग की लालसा लात्मसम्मान का सर्वनाश कर
देती है। आपस में सलाह करके मर्यादा की रक्षा का कोई उपाय सोचने को मुहलत
न थी। एक-एक पल भाग्य का निर्णय कर रहा था। हताश होकर सभी ललनाओं
ने पापी के सम्मुख जाने का निश्चय किया । आँखों से आंसू जारी थे, दिलों से आहे
निकल रही थीं, पर रत्न-जटित आभूषण पहने जा रहे थे, अश्रु -सिंचित नेत्रों में
सुरमा लगाया जा रहा था और शोक-व्यथित हृदयों पर सुगन्ध का लेप किया जा
रहा था। कोई केश गुंथाती थी, कोई मांगों में मोतियाँ पिरोती थीं। एक भी ऐसे
पक्के इरादे की स्त्री न थी, जो ईश्वर पर, अथवा अपनी टेक पर, इस आज्ञा को
उलंघन करने का घाइस कर सके।
एक घंटा भी न गुजरने पाया था कि बेग्रमात परे के परे, आभूषणों से जग-
मगाती, अपने मुख की शांति से बेले और गुलाब की कलियों को लजातो, सुगध क
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१०५
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