पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मानसरोवर ? भन्य रिशवती कर्मचारियों की तरह वह भी हेकड़ आदमी थे। ऐसे निर्द्वन्द रहते मानो उनमें यह बुराई छू तक नहीं गई है। जब वह कानून से जी-भर भी न टलने थे तो उन पर रिशक्त का सन्देह हो ही क्यों कर सकता था, और कोई करता भी तो उसकी मानता कौन ? ऐसे चतुर खिलाड़ी के विरुद्ध कोई जाब्ते की कार्रवाई कैसे होतो मिष्टर सिनहा अपने अफसरों से भी खुशामद का व्यवहार न करते। इससे हुकाम भी उनका बहुत भादर करते थे। मगर जगत पड़ेि ने वह मंत्र मारा था जिसका उनके पास कोई उत्तर न था। ऐसे वांगड़ आदमी से आज तक उन्हें साविका न पड़ा था। अपने नौकरों से पूछते, दुड्ढा क्या कह रहा है ? नौकर लोग अपनाएन बताने के लिए झूठ के पुल बाँध देते हुजूर, यहता था, भूत बनकर मागा, मेरी बेक्षी बने तो सही, जिस दिन मरूँगा उस दिन एक के सी जगत पौड़े हंगे। मिस्टर सिनहा परके नास्तिक थे ; हिन यह बातें सुन सुनकर सशक हो जाते ; और उनकी पत्नी तो थर-थर काँपने लगती। वह नौकरों से बार-बार कहती, उससे भाकर पूछो, क्या चाहता है। जितने रुपये चाहे, ले ले, हमसे जो मांगे वह दंगे, बस यहां से चला जाय । लेकिन मिस्टर सिनहा आदमियों की इशारे से मना कर देते थे। उन्हें अभी तक पाशा थी कि भूख-प्यास से व्याकुल होकर बुड्ढा चला जायगा। इससे अधिक यह भय था कि मैं जरा भी नरम पड़ा और नौकरो ने मुझे १३ बनाया। छठे दिन मालूम हुआ कि जगत पड़ेि अबोल हो गया है, उससे हिला तक जहाँ बाता. चुपचाप पड़ा माशश की ओर देख रहा है, शायद आज रात को दम निकल जाय । मिस्टर सिनहा ने लम्बी सांस ली और गहरी चिन्ता में डूब गये। पत्नी ने माखों में आंसू भरकर आग्रह-पूर्वक कहा- तुम्हें मेरे सिर की कसम, जाकर किसी तरह इस बला को टालो। बुढढा भर गया तो हम कहीं के न रहेंगे। अब रुपये का मुँह मत देखो । दो-चार हजार भी देने पहें तो देकर उसे मनाओ। तुमको माते शर्म माती हो तो मैं चली जाऊँ । सिनहा--जाने का इरादा तो मैं कई दिन से कर रहा हूँ; लेकिन जब देखता हूँ, वहा भीड़ लगी रहती है, इससे हिम्मत नहीं पाती। सब आदमियों के सामने को मुमसे न जाया जायगा, चाहे कितनी हो बड़ी आमत क्यों न आ पड़े। तुम हो-बार हार की कहती हो, मैं दस-पांच हजार देने को तैयार है । लेकिन वहाँ