१३२ मानसरोवर . - कहीं मर तो नहीं रहा है? जेनी लालटेन निकालो और जगत के समीप जाकर पोले-पड़िजी, कहो क्या हाल है ? जगत पाड़े ने आँखें खोलकर देखा और उठने को असफल चेष्टा करके बोला- मेरा हाल पूछते हो ? देखते नहीं हो, मर रहा हूँ ? सिनहा-तो इस तरह क्यों प्राण देते हो? जगत-तुम्हारी यही इच्छा है तो मैं क्या करूं ? सिनहा-मेरी तो यह इच्छा नहीं । हाँ, तुम अलबत्ता मेरा सर्वनाश करने पर तुले हुए हो । आखिर मैंने तुम्हारे डेढ़ सौ रुपये हो तो लिये हैं। इतने ही रुपयों के लिए तुम इतना बड़ा अनुष्ठान कर रहे हो। अगत-डेढ़ सौ रुपये की बात नहीं है जो, तुमने मुझे मिट्टी में मिला दिया। मेरी डीग्री हो गई होती तो मुझे दस बोघे अमोन मिल जाती और सारे इलाके में नाम हो जाता । तुमने मेरे डेढ़ सौ नहीं लिये, मेरे पाँच हजार बिगाइ दिये। पूरे पाँच हजार । लेकिन यह धमड न रहेगा, याद रखना। कहे देता हूँ, सत्यानाश हो जायेगा। इस अदालत में तुम्हारा राज्य है, लेकिन मागवान् के दरबार मे विनों हो का राज्य है। विष का धन लेकर कोई सुखो नहीं रह सकता। मिस्टर सिनहा ने बहुत खेद और लज्जा प्रकट को, बहुत अनुनय-विनय से काम लिया और अन्त में पूछा-सच बतलाभो पौड़े, कितने रुपये पा जाओ तो यह अनु- छान छोड़ दो ? जगत पड़ेि अबकी और लगाकर उठ बैठा और बड़ी उत्सुकता से बोला--पाच हजार से कौड़ी कम न लूंगा सिनहा-पांच हजार तो बहुत होते हैं । इतना जुल्म न करो। जगत-नहीं, इससे कम न लूंगा। यह कहकर जगत पौड़े फिर लेट गया। उसने ये शब्द इतने निश्चयात्मक भाव से कहे थे कि मिस्टर सिनहा को और कुछ कहने का साहस न हुआ। रुपये लाने पर चळे । लेकिन घर पहुँचते-पहुँचते नीयत बदल गई। डेढ़ सौ के बदले पाँच इसोर देते कलक हुआ। मन में कहा-मरता है, मर जाने दो, कहाँ को ब्रह्महत्या और कैसा पाप ! यह सब पाखर है । बदनामी हो न होगी ? सरकारी मुलाजिम तो पोहो बदनाम होते हैं, यह कोई नई बात थोड़े हो है। बचा कैसे उठ बैठे थे।
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