पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१३८

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दण्ड बूझकर टाला कि शायद इस मांधी का जोर कुछ कम हो जाय; लेकिन जब त्रिवेणी का सोलहवां साल समाप्त हो गया तो टाल-मटोल की गुजायश न रहो । संदेश भेजने लगे; लेकिन जहाँ सँदेशिया जाता वही जवाब मिलता-दमें मजूर नहीं। जिन घरों में साक-भर पहले उनका संदेशा पाकर लोग अपने भाग्य को सराहते, वहाँ से अब सुखा जवाब मिलता था-हमें मजूर नहीं । मिस्टर सिनहा धन का लोभ देते, अमोन नज़र करने को कहते, लड़के को विलायत भेजकर ऊँचो शिक्षा दिलाने का प्रस्ताव करते ; किन्तु उनकी सारी आयोजनाओं का एक ही जवाब मिलता था-हमें मजर नहीं । ऊँचे घरानों का यह हाल देखर मिस्टर सिनहा उन घरानों में सन्देश भेजने लगे, जिनके साथ पहले बैठकर भोजन करने में भी उन्हें सकोच होता था; लेकिन वहाँ भी नहो जवाब मिला-हमें मंजूर नहीं । यहाँ तक कि कई जगह वह खुद दौड़- दौड़कर गये, लोगों की मिन्नते की, पर यहो जवाब मिला-साहब, हमें मजूर नहीं । शायद बहिष्कृत घरानों में उनका सदेश स्वीकार कर लिया जाता ; पर मिस्टर सिनहा जान-बूझकर मक्खी न निगलना चाहते थे। ऐसे लोगों से सम्बन्ध न करना चाहते थे जिनका बिरादरी में कोई स्थान न था। इस तरह एक वर्ष बोत गया । मिसेज सिनहा चारपाई पर पड़ो कराह रही थी, त्रिवेणो भोजन बना रहो यो और मिस्टर सिनहा पत्नी के पास चिंता में डूबे बैठे हुए थे। उनके हाथ में एक खत पा, बार-बार उसे देखते और कुछ सोचने लगते थे। बड़ी देर के बाद रोहिणो ने भाखें खोली और बोली-भवन बनूंगी। पाहे मेरी जान लेकर छोड़ेगा। हाथ कैसा कागज है ? सिनहा-यशोदानदन के पास से खत माया है । पाजी को यह खत लिखते हुए शर्म नहीं आई। मैंने इसकी नौकरी लगाई, इसकी शादी करवाई और आज उसका मिजाज इतना बढ़ गया है कि अपने छोटे भाई को शादो मेरो लाडो से करना पसद नहीं करता । अभागे के भाग्य खुल जाते ! पत्नो-भावान्, गम ले चलो। यह दुर्दशा नहीं देखी जाती। अंगूर खाने का जी चाहता है, मैंगवाये हैं कि नहीं ? सिनहा-मैं खुद जाकर लेता आया था। यह कहकर उन्होंने तश्तरी में अंगूर भरकर परनी के पास रख दिये। वह उठा-