१५० मानसरोवर - । . लैला-~यह मेरी आदत नहीं । शाहजादा फिर वहीं बैठ गया और लैला फिर' गाने लगी। लेकिन गला नि । नगा, मानों वीणा का कोई तार टूट गया हो। उसने नादिक्ष की और एण नेत्रों से देखकर कहा-तुम यहाँ मत बैठो। कई भादमियों ने महा-लेला, ये हमारे हुजूर शात जादा नादिर हैं । लैला बेपरवाई से बोली-~-मड़ी खुशी की बात है। लेकिन यह शाहजादों का क्या काम ? उनके लिए महल हैं, महामिलें है, और शराब के दौर है । मैं उनके लिए गाती हूँ, जिनके दिल में दर्द है, उनके लिए नहीं, जिनके दिर में शौक है शाहज़ाया ने उन्मत्त भाव से कहा-लैला, मैं तुम्हारी एक तान पर अपना सब कुछ निसार कर सकता हूँ। में शोक का गुलाम था, लेकिन तुमने दर्द का मजा चखा दिया। लैला फिर गाने लगी, लेकिन आवाज काबू में न थी, मानो वह उसका गला ही न था। लैला ने डफ़ कन्धे पर रख लिया और अपने डेरे को और चली । श्रोता अपने- छापने पर चले । कुछ लोग उसके पोछ-पोछे उस वृक्ष तक आये, जहां वह विश्राम करती थी। जब वह अपनी नोपलो के द्वार पर पहुँची, तब सभी आदमी बिदा हो चुके थे । केवल एक आदमी झोपड़ी से है हाथ पर चुपचाप खड़ा था। लैला ने पूछा-तुम कौन हो ? नादिर ने कहा- तुम्हारा गुलाम नादिर ! लैला-तुम्हें मालूम नहीं कि मैं अपने अमन के गोशे में किसी को नहीं आने देती। नादिर----यह तो देख ही रहा हूँ। लैला-फिर क्यों बैठे हो? नादिर-~-उम्मीद दामन पकड़े हुए लैला ने कुछ देर के बाद फिर पूछा--कुछ खाकर आये हो ? नादिर-अब तो न भूख है, न प्यास । लैला-भाओ, आज तुम्हें गरीबों का खाना खिलाऊँ। इसका मन्ना भी चख ली।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१५१
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