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मियाद गुजर जाने पर लाला दाऊदयाल ने तकाजा किया। एक आदमी रहमान
के घर मेजकर उसे बुलाया, और कठोर स्वर से धोले-क्या अभी दो साल नहीं पूरे
हुए ? लामो, रुपये कहाँ है
रहमान ने बड़े दोन भाव से कहा-हजूर, बड़ी गर्दिश में हूँ। अम्मा जब से
हज करके आई हैं, तभी से बीमार पड़ी हुई हैं। रात-दिन उन्हीं की दवा-दारू में
दौड़ते गुजरता है । जब तक जीती है हजूर, कुछ सेवा कर लूं, पेट का धंधा तो
जिन्दगी-भर लगा रहेगा । अषकी कुछ फसिल नहीं हुई हजूर ! जस पानी मिना सूख
गई । सन खेत में पड़े-पड़े सूख गया। ढोने की मुहलत न मिलो। रवी के लिए खेत
न जोत सका, परती पड़े हुए हैं । मल्लाह हो जानता है, किस मुसोबत से दिन कट
रहे हैं। हजूर के रुपये कौसी-कौड़ी अदा करूँगा, साल-भर को और मुहलत दीजिए।
अम्मा अच्छी हुई, और मेरे सिर से बला टली ।
दाऊदयाल ने कहा-३२) सैकड़े ब्याज हो जायगा।
रहमान ने जवाब दिया-जैसी हजूर को मरजी ।
रहमान यह वादा करके घर भाया तो देखा, मां का अंतिम समय भा पहुंचा है,
प्राण-पोणा हो रही है। दर्शन बदे थे, सो हो गये। मां ने बेटे को एक बार वात्सल्य
दृष्टि से देखा, भाशीर्वाद दिया और परलोक सिधारी। रहमान अब तक गरदन तक
पानी में था, अब पानी सिर पर आ गया।
उस वक्त तो पड़ोसियों से कुछ उधार लेकर दफन कफन का प्रबन्ध च्यिा, किन्तु
मृत-आत्मा को शान्ति और परितोष के लिए प्रकात और फ्रातिहे की जरूरत थी,
ऋत्र बनवानो जरूरी थी, बिरादरी का खाना, गरीबों को बरात, कुरान की तलावत:
और ऐसे कितने ही संस्कार करने परमावश्यक थे।
मातृ सेवा का इसके खिवा अब और कौन-सा अवसर हाथ आ सकता था, माता
के प्रति समस्त सांसारिक जौर धार्मिक कर्तव्यों का अन्त हो रहा था। फिर तो माता •
की स्मृति-मात्र रह जायगी, संकट के समय फरियाद सुनाने के लिए ! मुझे खुदा
सामर्थ्य दी होती, तो इस वक्त क्या कुछ न करता । लेकिन अब क्या अपने पड़ोसियों
से भी गया गुजरा हूँ।
उसने सोचना शुरू किया, रुपये लाऊँ कहाँ से ? अब तो लाला दाऊदयाल भी न
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१७१
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