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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१९२

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दीक्षा की शराब ली। अगर यह बात साबित हो गई, तो उल्ठा मैं हो फंस जाऊँगा। क्या हरज है, इतना छिपा दंगा। शत्रुता का कारण कुछ और ही दिखा दूँगा। पर मुकदमा सहर चलाना चाहिए। जाऊँ कहाँ ? यह कालिमा-मण्डित मुँह झिसे दिखाऊँ । हाय ! बदमाश को कालिख हो लगानी थी, तो या तवे में कालिख न थी, लैम्प में कालिख न थी? इम-से-कम छूट तो जातो। जितना अपमान हुआ है, वहीं तक रहता। अब तो मैं

  • मानों अपने कुकृत्य का स्वय ढिंढोरा पीट रहा हूँ। दसरा होता, तो इतनी दुर्गति पर

डूग मरता! गनीमत यही थी कि अभी तक रास्ते में किसी से मुलाकात नहीं हुई थी। नहीं तो उसके कालिमा-सम्बन्धी प्रश्नों का क्या उत्तर देता ? जब जरा थकन कम हुई, तो मैंने सोचा, यहाँ कब तक बैठा रहूँगा । लामो, एक बार यत्न करके देखू तो, शायद स्याही छूट जाय । मैंने साल से मुंह रगड़ना शुरू किया । देखा, तो स्याही छूट रहो यो । उस समय मुझे जितना मानन्द हुआ, उसकी कोन कल्पना कर सकता है । फिर तो मेरा हौसला बढा । मैंने मुंह को इतना रगा कि कई जगह चमड़ा तक छिल गया। किन्तु वह कालिमा छुड़ाने के लिए मुझे इस समय बड़ी से बड़ी पीड़ा भी तुच्छ जान पड़ती थो । यद्यपि मैं नगे सिर था, देवल पुर्ता और धोती पहने हुए था, पर यह कोई अपमान को बाब नहीं । गाउन, अचकन, पगड़ी, डाक-बँगले हो में रह गई। इसकी मुझे चिन्ता न थी ! कालिख तो छूट गई । लेकिन मातिमा छूट जाती है, पर उसका दान दिल से कभी नहीं मिटता। इस घटना को हुए आज बहुत दिन हो गये हैं। पूरे पांच साल हुए, मैंने शराब का नाम नहीं लिया, पोने की कौन कहे । कदाचित् मुझे सन्मार्ग पर लाने के लिए वह ईश्वरीय विधान था। कोई युक्ति, कोई तर्क, चोई चुटकी मुझ पर इतना स्थायी प्रभाव न डाल सकती थी। सुफल को देखते हुए तो मैं यही कहूँगा कि जो कुछ हुआ, बहुत अच्छा हुआ। वहो होना चाहिए था। पर उस समय दिल पर जो गुजरी थी, उसे याद करके आज भी नोंद उचट जाती है। अप विपत्ति कथा को क्यों तूल + । पाठक स्वयं अनुपान कर सकते हैं । खबर तो फैल हो गई, किन्तु मैंने झपने और शरमाने के बदले बेहयाई से काम लेना अधिक अनुकूल समझा। अपनी बेवकूफी पर खूब हँपता था, और बेधड़क अपनी