मानसरावर रख जाता था, और दोनों मित्र दोनों काम साथ साथ करते थे। मिरजा सज्जादमलो के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियां होती थी। मगर यह बात न थी कि मिरजा घर के और लोग उनके इस व्यवहार से खुश हों। घरवारों का तो कहना ही क्या, महल्लेवाळे, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियां किया करते थे-बदा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है । खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दोन-दुनिया, किसी के काम का नहीं रहता, न घर का, न घाट का । मुश रोग है । यहाँ तक कि मिरजा को बेगम साहया को इससे इतना द्वेष था कि अबसर खोज-खोजकर पति को लताइतो थीं। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोतो ही रहती थी, तब तक उधर बानी बिछ जाती थी। और, रात को जब सो जाती थी, तब कहों मिरजाजी घर में आते थे। हां, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारतो रहतो थो-या, पान मांगे हैं ? कह दो, आकर ले जायँ । खाने को फुरसत नहीं है ? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खा, चाहे कुत्ते को खिला; पर वह बह भो कुछ न छह सकतो थो। उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मौर साहब से । उन्होंने उनका नाम मोर बिगाफ रख छोड़ा था। शायद मिरजाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इलजाम 'भीर साहब ही के सिर थोप देते थे। एक दिन बेगम साहबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडो से कहा- जाश्चर मिरजा साहब को बुला ला । किसी हकीम के यहाँ से दवा लावें। दौड़, जल्दी कर । लौंडो गई, तो मिरजाजी ने कहा -चल, अभी आते हैं। बेगम साहा का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी से कहा-जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायगी। मिरजाजी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे; दो ही किश्तों में मीरसाहन को मात हुई जातो थो । गुमलाकर बोले- क्या ऐसा दम लयों पर है १ बरा सब नहीं होता ? मोर---अरे तो प्राकर सुन ही आइए न। औरतें नाजुभ-मिजाज होती -- मिरजा-जी हां, चला क्यों न जाऊँ। दो किश्तों में आपको मात होती है। मोर-जनाब, इस भरोसे न रहिएगा। वह चाल सोचो है कि आपके मुहरे
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