शतरंज के खिलाड़ी ( २ ) मोरसाहब को बेगम किसी अज्ञात कारण से मोरसाहब का घर से दूर रहना हो उपयुक समझती थी। इसलिए वह उनके शतरज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थों, बल्कि कभी-कभी मीरसाहब को देर हो जातो, तो याद दिला देतो पी। इन कारणों से मौरसाहा को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्रो अत्यन्त विनयशील और गम्भीर है। लेकिन जब दोवानखाने में बिसात बिछने लगो और मोरसाहब दिन-मा घर में रहने लगे, तो बेगम साहया को बड़ा कष्ट होने लगा। उनको स्वाधीनता में माधा पड़ गई। दिन-भर दरवाजे पर झांकने को तरस जाती। उधर नौकरों में भी कानाफूसो होने लगी। जब तक दिन भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में कोई आवे, कोई जाय, उनसे कुछ मतलब न था। अब आठों पहर की धौंस हो गई। कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का। भोर हुक्का तो जिसी प्रेमो के हृश्य को भांति नित्य जलता हो रहता था। वे बेगम साहबा से जा-जार कहते - हुजूर, मियों को शतरज तो हमारे जी का जजाल हो गई। दिन-भर दौड़ते दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये। यह भो कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम कर दी। वही आध पड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है । खैर, हमें तो छोई शिकायत नहीं ; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा हो लावंगे; मगर यह खेल मनहस है। इसका खेलने वाला कभी पनपता नहीं , घर पर कोई-न-कोई आफ़त जरूर भाती है । यहां तक कि एक के पीछे महल्ले-के-महल्ले तमाह होते देखे गये हैं । सारे महल्ले में यहाँ चरचा होती रहता है । हुजूर का नमक खाते है अपने आका को बुराई सुन-सुनकर रज होता है । मगर क्या करें । इस पर बेगम साहया कहती-मैं त' खुद इसको पसन्द नहीं करती। पर वह किसी को सुनते ही नहीं, क्या किया जाय । महरुले में भो जो दो-चार पुराने जमाने के लोग थे, वे आपस में माति-भांति के अमगल की कल्पनाएँ करने लगे-अब खैरियत नहीं है । जब हमारे रहेसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफ़िा है। यह बादशाहत शतरत्र के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं। राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटो जातो थी। कोई फरि- याद सुननेवाला न था। देहातों को सारी दौलत लखनऊ में खिचो जाती थो, और
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