२८८ मानसरावर मन्त्री~ यहां कुछ निश्चय-विश्चय न होगा। आज दिन भर पंचायत हुआ को, कुछ तय न हुमा। कल वहीं शाम को लाट साहब आवेंगे। तब तक तो आपली न जाने क्या दशा होगी। आपका चेहरा बिलकुल पोला पड़ गया है। मोटेराम यहीं मरना बदा होगा, तो कौन टाल सकता है ? इस दोने में कला- कन्द है क्या? मन्त्री~हाँ, तरह तरह को मिठाइयाँ हैं। एक नातेदार के यहाँ बैना भेजने के लिए विशेष रीति से बनवाई है। मोटेराम-जभो इनमें इतनी सुगन्ध है ? जरा दोना खोलिए तो ! मन्त्रो ने मुसकिराकर दोना खोळ दिया, और पण्डितजो नेत्रों से मिठाइयां खाने मगे। अन्धा आखें पाकर भी संसार को ऐसे तृष्णापूर्ण नेत्रों से न देखेगा। मुंह में पानी भर आया। मंत्रीजी ने कहा-आपका व्रत न होता, तो दो-चार मिठाइयाँ आपको चखाता ! ) सेर के दाम दिये हैं। मोटेाम-तष तो बहुत हो श्रेष्ठ हांगी। मैंने बहुत दिन हुए कलाकंद नहीं खाया। मन्त्रो-आपने भी तो बैठे बैठाये मंझट मोक ले लिया। प्राण ही न रहेंगे, तो घन किस काम आयेगा? मोटेराम -क्या करूँ, फंस गया। मैं इतनो मिठाइयों का जलपान कर जाता था। (हाथ से मिठाइयों को टटोलकर ) भोला को दूकान को होगी ? मन्त्री..चलिए दो चार ! मोटेराम क्या चखू, धर्म-संकट में पड़ा हूँ। मन्त्री-अजी, वखिए भो ! इस समय को आनन्द प्राप्त होगा, वह लाख रुपये में भी नहीं मिल सकता। कोई किसी से कहने जाता है क्या ? मोटेराम-मुझे भय किसका है ? मैं यहाँ दाना-पानी पिना मर रहा हूँ, और किसी को परवा ही नहीं। तो फिर मुझे क्या डर ? लाओ, इधर दोना बढ़ाओ । जामो, सबसे कह देना, शास्त्रीजी ने व्रत तोड़ दिया। भाड़ में जाय बाजार और व्यापार । यहाँ किसी की चिन्ता नहीं। जब धर्म नहीं रहा, तो मैंने ही धर्म का बोस थोड़े हो उठाया है। यह कहकर पण्डितजी ने दोना अपनी तरफ खींच लिया, और लगे बढ़ बहकर
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