मानसरोवर . देगा । वह इतना हृदय-शून्य नहीं है। लेकिन दिन गुजरते जाते थे, और यशवत को भोर से इस प्रकार का कोई प्रस्ताव न होता था; और रमेश खुद संकोच वश उसका नाम लिखावे हुए डरते थे। न जाने इसमें उसे क्या बाधा हो । अपनी रक्षा के लिए वह उसे सइट में न डालना चाहते थे। यशवंत हृदय शून्य न थे, भाव शून्य न थे, लेकिन कर्म शन्य अवश्य थे। उन्हें अपने परम मित्र को निर्दोष मारे जाते देखकर दुःख होता था, कभी-कभी रो पाते थे। पर इतना साहस न होता था कि सफाई देकर उसे छुसा लें। न जाने अफसरों को क्या ख्याल हो । यहाँ यह न समझने लगें कि मैं भी षड्यंत्रकारियों से सहानु- भूति रखता हूँ, मेरा भी उनके साथ कुछ सम्पर्क है । यह मेरे हिन्दुस्तानी होने का दड है। जानकर साइर निगलना पड़ रहा है । पुलीस ने अप्परों पर इतना आतंक जमा दिया है कि चाहे मेरी शहादत से रमेश छूट भी जाय, खुल्लम-खुल्ला मुम पर अविश्वास न किया जाय, पर दिलों से यह सन्देह क्यों कर दूर होगा कि मैंने केवळ एक स्वदेश-बंधु को छुपाने के लिए झूठी गवाहे दो? और, बन्धु भी कोन ? जिस पर राज-विद्रोह का अभियोग है। इसी सोच विचार में एक महीना गुजर गया। उधर मैजिस्ट्रेट ने यह मुकदमा यशवंत ही के इजलास में भेज दिया। हाके में कई खून हो गये थे, और मैजिस्ट्रेट को उतनी कड़ी सजाएँ देने का अधिकार न था जितनो उसके विचार में दो बानी चाहिए थीं। ६ ) यशवंत अब बड़े संकट में पड़ा । उसने छुट्टी लेनी चाहो । लेकिन मंजूर न हुई। सिविल सर्जन अँगरेज़ था । इस वजह से उसकी सनद लेने की हिम्मत न पड़ी । बला सिर पर आ पड़ी थी और उससे बचने का कोई उराय न सूझता था। भाग्य की कुटिल ऋडा देखिए । साथ खेले और साथ पढ़े हुए दो मित्र एक दूसरे के सम्मुख खड़े थे, केवल एक कठघरे का अन्तर था। पर एक को भान दूसरे की मुट्ठी में थी। दोनों को पाखें कभी चार न होती। दोनों सिर नीचा रिये रहते थे । यद्यपि यशवंत न्याय के पद पर था, और रमेश मुलजिम, लेकिन यथार्थ में दशा इसके प्रतिकूल थी। यशक्त को आत्मा बजा, ग्लानि और मानसिक पोवा से तड़पती थी, और रमेश का मुख निर्दोषिता के प्रकाश से चमकता रहता था।
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