भाइ का टट्टू सहसा एक युवक ने खड़े होकर कहा-आप बार-बार मुमो को क्यों चुनते हैं ? हिस्सा लेनेवाले तो सभी है, मैं ही क्यों बार बार अपनी जान जोखिम में डालू ? रमेश ने दृढ़ता से कहा-इसका निश्चय करना मेरा काम है कि कौन कहीं भेजा जाय । तुम्हारा काम केवल मेरी आज्ञा का पालन है। युवक-अगर मुझसे काम ज्यादा लिया जाता है, तो हिस्सा क्यों नहीं ज्यादा दिया जाता ? रमेश ने उसकी त्योरियां देखी, और चुपके से पिस्तोल हाथ में लेकर बोले- इसका फैसला वहाँ से लौटने के बाद होगा। युवक में जाने से पहले इसका फैसला करना चाहता हूँ। रमेश ने इसका जवाब न दिया। वह पिस्तौल से उसका काम तमाम कर देना चाहते ही थे कि युवक खिड़की से नीचे कूद पड़ा और भागा । कूदने-दिने में उसका- जोड़ न, था। चलती रेलगाड़ी से फौद पहना उसके बायें हाथ का खेल था। वह वहाँ से सोधा गुप्त पुलीस के प्रधान के पास पहुंचा। (८) यशवत ने भी पेंशन लेकर वकालत शुरू की थी। न्याय-विभाग के सभी लोगों से उनको मित्रता थी। उनकी वकालत बहुत जल्द चमक उठी। यशक्त के पास लाखों रुपये थे। उन्हें पेंशन भी बहुत मिलती थी। वह चाहते, तो घर बैठे आनन्द से अपनी उम्र के बाकी दिन काट देते। देश और जाति की कुछ सेवा करना भी उनके लिए मुश्किल न था। ऐसे ही पुरुषों से निस्वार्थ सेवा को भाशा की जा सकती है। पर यशवत ने अपनी सारी उम्र रुपये कमाने में गुजारी थी, और वह अब कोई ऐसा काम न कर सकते थे, जिसका फल रुग्यो की सूरत में न मिळे । यो तो सारा सभ्य समाज रमेश से घृणा करता था, लेकिन यशवंत सबसे बढ़ा हुआ था। कहता, अगर कभी रमेश पर मुकदमा चलेगा, तो मैं बिना फ्रीस लिये सर- कार की तरफ से पैरवी करूँगा। खुल्लमखुल्ला रमेश पर छोटे उसाया करता. भादमी नही, शैतान है, राक्षस है; ऐसे आदमो का तो मुँह न देखना चाहिए। उफ ! इसके हायो कितने भले घरों का सर्वनाश हो गया। कितने भले आदमियों के प्राण गये। कितनी स्त्रियाँ विधवा हो गई । स्तिने बालक अनाथ हो गये । आदमी नहीं, पिशाच है। मेरा वश चले, तो इसे गोली मार दूं, जीता चुनवा दें। -यह .
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