मानसरोवर . सारे शहर में शोर मचा हुआ था-रमेश बाबू पकड़ गये। बात सच्चो यो। रमेश सचमुच पकड़ गया था। उस युवक ने, जो रमेश के सामने कूदकर भागा था, पुलोस के प्रधान से सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दिया था। अपहरण और हत्या का कैसा रोमाञ्चकारी, कसा पैशाचिक, कसा पाप पूर्ण वृत्तान्त था ! भद्र समुदाय बगले बजाता था। सेठों के घरों में घी के चिराग चलते थे। उनके 'सिर पर एक नंगी तलवार लटकती रहती थी, आज वह हट गई। अब वे मोठी नींद सो सकते थे। अखबारों में रमेश के हथकंडे छपने लगे। वे बातें जो अब तक मारे भय के किसी की जबान पर न आती थीं, अब अखबारों में निकलने लगी । उन्हें पढ़कर पता चलता था कि रमेश ने कितना अँधेर मचा रखा था। कितने ही राजे और रहेस उसे माहवार टैक्स दिया करते थे। उसका पुरजा पहुँचता, फलो तारीख को इतने रुपये भेज दो। फिर किसको माल थी कि उसका हुक्म टाल सके। वह जनता के हित के लिए जो काम करता, उसके लिए भी अमोरों से चन्दे लिये जाते थे। रक्रम लिखना रमेश का काम था। अमीर को बिना कान-पूंछ हिलाये वह रकम दे देनी पड़तो थी। लेकिन भद्र-समुदाय जितना हो प्रसन्न था, जनता उतनी ही दुःखो थो । अब कोन 'पुलीसवालों के अत्याचार से उनको रक्षा करेगा, कौन सेठों के जुल्म से उन्हें बचा- वेगा, कौन उनके लड़कों के लिए कला-कौशल के मदरसे खोलेगा ! वे अब किसके पल पर कूदेंगे? वे अब अनाथ थे। वही उनका अवलंब था। अब वे किसका मुंह ताकेंगे ? किसको भरनो फ़रियाद सुनावेंगे ? पुलोस शहादतें जमा कर रही थी। सरकारी वकील जोरों से मुकदमा चलाने की तैयारियां कर रहा था। लेकिन रमेश की तरफ से कोई वकोल न खदा होता था। जिले-भर में एक ही आदमी था, जो उसे कानून के पंजे से छुड़ा सकता था। वह था यशवत । लेकिन यशवंत जिसके नाम से कानों पर उँगली रखता था, क्या उसी की वकालत करने को खड़ा होगा ? असभव ! रात के ९ बजे थे। यशवत के कमरे में एक स्त्री ने प्रवेश किया। यशवंत अखबार पढ़ रहा था । वोला-क्या चाहती हो ?
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३०१
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