विनोद
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भी वह निराप्त न थे । इसा संध्या तो छोड़ को बैठे थे। नये फेशन के पाल कट हो
चुके थे। अब बहुधा अंगरेपो हो बोलचे, यद्यपि वह अशुद्ध और भ्रष्ट होतो भो । रात'
को अंगरेजो महावरों को खिताब लेकर पाठ को मांति रटते। नीचे के दरसों में बेचारे
ने इतने श्रम से कभी पाठ न याद किया था। उन्हीं रटे हुए महावरों को मौके-बे-
मौके काम में लाते । दो-चार बार लूपी के सामने भी अँगरेजी बघारने लगे, जिसछे
उनको योग्यता का परदा और भी खुल गया ।
किंतु दुष्टो को अब भी उन पर दया न आई । एक दिन पक्रधर के पास लूसी
का पत्र पहुंचा, जिसमें बहुत अनुनय विनय के बाद यह इच्छा प्रकट की गई थी कि-
'मैं भापको अँगरेज़ी खेल खेलते देखना चाहता हूँ। मैंने भापको कभी फुटबाल या
हाकी खेलते नहीं देखा। अगरैजी जटिलमैन के लिए हाबी, मिनेट आदि में सिद्ध-
हस्त होना परमावश्यक है । मुझे आशा है, आप मेरो यह तुच्छ याचना स्वीकार करेंगे।
अँगरेको वेष भूषा में, बोल-चाल में, आचार व्यवहार में काळेज मैं अब आपका कोई
प्रतियोगी नहीं रहा । मैं चाहती हूँ कि खेल के मैदान में भी आपको सर्वश्रेष्टता सिद्ध
हो जाय । उदाचित् कमो पापको मेरे साथ लेडियों के सम्मुख होना पड़े, तो उस
समय आपको और आपसे ज्यादा मेरी हेठो होगी। इसलिए टेनिस अवश्य खेलिए।'
इस पजे पण्डितजी को यह पत्र मिला । दोपहर को ज्योंही विश्राम की घंटी
बजो कि आपने नईम से जाकर कहा-यार, सरा फुटबाल निकाल दो।
नईम फुटबाल के कप्तान भी थे। मुस्किार पोले-खैर तो है, इस दोपहर में
फुटबाल लेकर क्या कीजिएगा ? आप तो कभी मैदान की तरफ झांकते भी नहीं ।
आज इस जलतो-वलती धूप में फुटबाल खेलने को धुन क्यों सवार है।
चक्रधर-आपको इससे क्या मतलब ! भाष गेंद निकाल दोजिए। मैं गेंद में भी
आप लोगों को नीचा दिखाऊँगा।
नईम-~-जनाब, कहीं चोट चपेट आ जायगी, मुफ्त में परेशान होइएगा। हमारे
हो सिर मरहम-पट्टी का बोना पड़ेगा। खुदा के लिए इस वक्त रहने दोलिए ।
चकघर-आखिर चोट तो मुझे लगेगी, आपका-इसमें क्या नुकसान होता है ?
थापको जरा-सा गेंद निकाल देने में इतनी आपत्ति क्यों है ?
नहम ने गैप निकाल दिया, और पण्डितभी उसो जलती हुई दोपहर में अभ्यास
करने लगे। बार-बार गिरते थे, वार-बार तालियां पड़ती थी, मगर वह अपनी धुन में.
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३१६
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