पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३२०

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विनोद ३१९ " 4 ? "बिछुड़ ही जाऊँगा। यह कठिन विरल पीड़ा कैसे सही जायगो । मुझे तो शझा है, कहीं पागल न हो जाऊँ, लूसी ने विस्मित होकर पुछा-आपली मशा क्या है ? शाप बीमार हैं क्या ? चक्रधर-आह डियर डालिश, तुम पूछती हो, मैं चोमार हूँ, मैं मर रहा हूँ, 'प्राण निकल चुके हे, केवल प्रेमाभिलापा डा अवलम्ब है। यह कहकर मापने उसका हाथ पाना चाहा । यह उनका उन्माद देखकर भय- भोत हो गई। क्रोध में आकर बोलो-आप मुझे यहाँ रोककर मेरा अपमान कर रहे हैं। इसके लिए आपको पछताना पड़ेगा । चक्रधर-लूप्यो, देखो, चलते-चलावे इतनी निष्ठुरता न छरों । मैंने ये विरह के दिन किस तरह काटे हैं, सो मेरा दिल ही जानता है । मैं ही ऐसा बेइया हूँ कि अब तक जोता हूँ । दूसरा होता, तो अप तक चल बसा होता । बस, केवल तुम्हारो सुधा- मयो पत्रिकाएँ हो मेरे जीवन का एकमात्र आधार घो। लूप्लो-मेरो पत्रिकाएँ ! कैसी ? मैंने आपको का पत्र लिखे ! आप कोई नशा तो नहीं खा माये है ? चक्रधर-डियर डालिङ्ग, इतनी जल्द न भूल जाओ, इतनो निर्दयता न दिखाओ। तुम्हारे वे प्रेम-पत्र, जो तुमने मुझे लिखे हैं, मेरे जीवन को सबसे बड़ी सम्पत्ति रहेंगे। तुम्हारे अनुरोध से मैंने यह वेष धारण किया, अपना सन्ध्या-हवन छोड़ा, यह आचार- व्यवहार ग्रहण किया। देखो तो ज़रा मेरे हृदय पर हाथ रखकर, कैसी धड़कन हो रहो है। मालूम होता है, पाहर निकल पड़ेगा। तुम्हारा यह कुटिल हास्य मेरे प्राण हो लेकर छोदेगा। मेरी अभिलाषाओं लसी -तुम भन तो नहीं ला गये हो या किसी ने तुम्हें चाडमा तो नहीं दिया है ? मैं तुमको प्रेम पत्र लिखतो ! ह. हः ! जरा अपनी सूरत तो देखो, खासे पनैले सुअर मालूम होते हो। किंतु पण्डितजी अभी तक यही समझ रहे थे कि यह मुहले विनोद कर रही है। उसका हाथ पकड़ने की चेष्टा करके कोडे-प्रिये, बहुत दिनों के बाद यह मुअवसर मिला है। गव न भागने पाओगी? लूसी को ८ नोव आ रया। उसने जोर से एक चाटा उनके लगाया । और