७२ मानसरोवर . तात्री हवा पर जान देना सिखाया गया था, यहाँ उसके सामने मुँह खोलना भी पाप था। बचपन से सिखाया गया था कि रोशनी ही जीवन है, यहाँ रोशनी के दर्शन भी दुर्लभ थे । घर पर अहिसा, क्षमा और दया ईश्वरीय गुण बताये गये थे, यहाँ इनका नाम लेने की भी स्वाधीनता न थो! संतसरन बड़े तीखे, गुस्सेवर आदमी थे, नाक पर भवत्री न धैटने, देते । धूर्तता और डल-कपट से ही उन्होंने जायदाद पैदा की थी और उसी को सफल जीवन का मत्र समझते थे। उनकी पत्नी उनसे भो दो अगुल ऊँची थी ? मजाल क्या कि यह अपनी अँधेरी कोठरी के द्वार पर खड़ी हो जाय, या -कभी छत पर टहल सके । प्रलय आ जाता, आसमान सिर पर उठा लेतों। उन्हें पकने का मर्ज था। दाल में नमक का पारा तेज़ हो जाना उन्हें दिन-भर बकने के लिए काफी बहाना था। मोटी-ताजी महिला थी, छीट का घाघरेदार लहँगा पहने, पानदान बगल में रखे, गहनों से लदी हुई, सारे दिन नरोठे में माचो पर बैठी रहती थीं। 'क्या मजाल कि घर में उनकी इच्छा के विरुद्ध एक पत्ती भो हिल जाय ! बहू की नई-नई आदतें देख-देख जला करती थीं। अव काहे को आवरू रहेगी। मुंडेर पर ‘खड़ी होकर झांकती है। मेरो लड़की ऐसी दीदा-दिलेर होती तो गला घोंट देतो। न जाने इसके देश में कौन लोग पसते हैं । गहने नहीं पहनती। अब देखो, नगी-बुच्चो धनी बैठी रहती है। यह भी कोई अच्छे लच्छन हैं। लोला के पीछे सीतासरन पर भी फटकार पड़ती। तुझे भी चाँदनी में सोना अच्छा लगता है, क्यों ? तू भी अपने को मर्द कहेगा? वह मर्द कैसा कि औरत उसके कहने में न रहे। दिन-भर घर में घुसा रहता है। मुंह में ज़बान नहीं है ? समझाता क्यों नहीं ? सीतासरन कहता-अम्मा, जब कोई मेरे सममाने से माने तब तो? मा-मानेगी क्यों नहीं, तू मर्द है कि नहीं ? मर्द वह चाहिए कि कड़ी निगाह से देखे तो औरत काँप उठे। स्रोतासरन-तुम तो समझाती ही रहती हो । मा-मेरी उसे क्या परवा । सममतो होगी, बुढ़िया चार दिन में मर जायगी वव तो मैं मालकिन हो ही जाऊँगी। सौतासरन-तो मैं भी तो सउकी बातों का जवाब नहीं दे पाता। देखती नहीं हो, कितनी दुर्बल हो गई है । वह रंग ही नहीं रहा । उस कोठरी में पड़े-पड़े उसकी दशा बिगड़ती जाती है।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/७३
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