मा मा ९५५ था, निस्वार्थ था, कर्तव्यपरायण था। जेल जाने के लिए इन्ही गुणों की जरूरत है। स्वाधीन प्राणियों के लिए ये गुण स्वर्ग के द्वार खोल देते हैं, पराधीनों के लिए नरक के। आत्मानन्द के सेवा-कार्य ने, उसकी वक्तृताओं ने और उसके राजनीतिक लेखों ने उसे सरकारी कर्मचारियों की नजरों में चढ़ा दिया था। सारा पुलोस-विभाग नीचे से ऊपर तक, उससे सतर्क रहता था, सबकी निगाहें उस पर लगी रहती थी। आखिर जिले में एक भयकर डाके ने उन्हें इच्छित अवसर प्रदान कर दिया। आत्मानन्द के घर की तलाशो हुई, कुछ पत्र और लेख मिले जिन्हे पुलोस ने डाके का बीनक सिद्ध किया । लगभग २० युवकों को एक टोली फीस ली गई। भात्मानन्द इनका मुखिया उहराया गया। शहादतें तैयार हुई । इस वेकारी और गिरानी के जमाने में मात्मा से ज्यादा सस्ती और कौन वस्तु हो सकती है ! बेचने को और किसी के पास रह हो क्या गया है । नाममात्र का प्रलोभन देकर अच्छी से अच्छी शहादतें मिल सकती है, और पुलीस के हार्थों में पड़कर तो निकृष्ट से निकृष्ट गवाहियां भी देव-वाणी का महत्त्व प्राप्त कर लेती है। माहादतें मिल गई, महोने-भर तक मुकदमा चला, मुकदमा क्या चला, एक स्वांग चलता रहा, और सारे अभियुक्तों को सजाएँ दे दी गई। आत्मा- नन्द को सबसे कठोर दण्ड मिला । ८ वर्प का कठिन कारावास ! माधवो रोज कचहरी जाती ; एक कोने में बैठी सारी कार्रवाई देखा करती। मानवी चरित्र कितना दुर्वल, कितना निर्दय, कितना नीच है, इसका उसे तब तक अनुमान भी न हुआ था। जब आत्मानन्द को सजा सुना दी गई और वह माता को प्रणाम करके सिपाहियों के साथ चला तो माधवो मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी। दो-चार दयालु सज्जनों ने उसे एक तांगे पर बैठाकर घर तक पहुंचाया। जम से वह होश में आई है, उसके हृदय में शूल-सा उठ रहा है। किसी तरह धैर्य नहीं होता। उस घोर आत्म-वेदना को दशा में अब उसे अपने जीवन का केवल एक लक्ष्य दिखाई देता है, और वह इस अत्या- चार का बदला है। अब तक पुत्र उपके जीवन का आधार था। अब शत्रुओं से बदला लेना ही उसके जीवन का आधार होगा। जीवन में अब उसके लिए कोई पाशा न थी। इस अत्याचार का बदला लेकर वह अपना जन्म सफल समझेगी। इस अभागे नर-पिशाच बागची ने जिस तरह उसे रक के भासू रुलाये हैं उसी भांति वह भी उसे रुलायेगी। नारी-हृदय कोमल है, लेकिन केवल अनुकूल दशा में, जिस दशा में पुरुष दुसरों को
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