दबाता है, स्त्री शील और विनय की देवो हो जाती है। लेकिन जिसके हाथों अपन सर्वनाश हो गया हो उसके प्रति स्त्री को पुरुष से कम घृणा और क्रोध नहीं होता अन्तर इतना ही है कि पुरुष शस्त्रों से काम लेता है, स्त्री कौशल से । रात भीगती जाती थी, और माधवी उठने का नाम न लेती थी। उसका दु. प्रतिकार के आवेश में विलीन होता जाता था। यहाँ तक कि इसके सिवा उसे औ. किसी बात की याद ही न रही। उसने सोचा, कैसे यह काम होगा ? कभी घर से नहीं निकलो ! वैधव्य के २२ साल इसी घर में कट गये , लेकिन अन निकलूं गो जबर्दस्ती निकलूंगी, भिखारिन बनेंगी, टहलवी बनूं गो, झूठ बोलू गो, सब कुकर करूँगी । सत्कर्म के लिए संसार में स्थान नहीं। ईश्वर ने निराश होकर कशचित इसकी ओर से मुंह फेर लिया है। अभी तो यहाँ ऐसे-ऐसे अत्याचार होते हैं और पापियों को दण्ड नहीं मिलता ! अब इन्हीं हाथों से बसे दण्ड दूंगी। . सध्या का समय था। लखनऊ के एक सजे हुए बँगले में मित्रों की महफिर जमी हुई थी । गाना-दजाना हो रहा था। एक तरफ आतशबाजियां रखी हुई थीं। दूसरे कमरे में मेज़ों पर खाना चुना जा रहा था। चारों तरफ पुलीस के कर्मचारी नज़र आते थे। यह पुलीस के सुपरिटेंडेंट मिस्टर बागची का बैंगला है। कई दिन हुए, उन्होंने एक मारके छा शुक्कदमा जीता था। अफसरों ने खुश होकर उनको तरको कर दी थी। और उसी को खुशो में यह उत्सव मनाया जा रहा था । यहाँ आये-दिन ऐसे उत्सव होते रहते थे। मुफ्त के गवैये मिल जाते थे, मुफ्त की भातश- बाजी ; फल और मेवे और मिठाइयाँ आधे दामों पर बाजार से आ जाती थी और चट दावत हो जाती थी। दूसरों के जहाँ सौ लगते, वहाँ इनका दस से काम चल जाता था। दौड़-धूप करने को सिपाहियों की धौज थी ही ! और यह मारके का मुकदमा क्या था ? वहो जिसमें निरपराध युवकों को बनावटो शहादतों से जेल में हूँस दिया गया था। गाना समाप्त होने पर लोग भोजन करने बैठे। बेगार के मजदूर और पल्लेदार जो बाजार से दावत और सजावट के सामान लाये थे, रोते या दिल में गालियाँ देते चले गये थे, पर एक बुढ़िया अभी तक द्वार पर बैठी हुई थी। अन्य मजदूरों को तरह वह भुनभुनाकर काम न करतो थी। हुक्म पावे ही खुश-दिल मजदूर की तरह
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