पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१००

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अभिलाषा १०१ स्वामी ने मेरा हाथ पकड़कर कहा-क्यो, रोने का कोई कारण है, या यो ही रोना चाहती हो ? 'क्या मेरे रोने का कारण तुम नहीं जानते " 'मैं तुम्हारे दिल की बात कैसे जान सकता हूँ। 'तुमने जानने की कभी चेष्टा की है ? 'मुझे इसका सान-गुमान भी न था कि तुम्हारे रोने का कोई कारण हो सकता है ।। 'तुमने तो बहुत कुछ पढा है, क्या तुम भी ऐसी बात कह सकते हो ?' स्वामी ने विस्मय में पड़कर कहा--तुम तो पहेलियाँ बुझवाती हो ? 'क्यों, क्या तुम कभी नहीं रोते ? 'मैं क्यों रोने लगा। 'तुम्हे अब कोई अभिलाषा नहीं है । 'मेरी सबसे बडी अभिलाषा पूरी हो गई । अब मैं और कुछ नहीं चाहता।" यह कहते हुए पतिदेव मुस्कराये और मुझे गले से लिपटा लेने को बढे । उनकी यह हृदयहीनता इस समय मुझे बहुत बुरी लगी। मैने उन्हें हाथों से पीछे हटाकर कहा-मैं इस स्वांग को प्रम नहीं समझती । जो कभी रो नहीं सकता वह प्रेम नहीं कर सकता। रुदन और प्रेम, दोनों एक ही स्रोत से निकले हैं। उसी समय फिर उसी गाने की ध्वनि सुनाई दी- अनोखे से नेही के त्याग, निराले पीडा के ससार । कहाँ होते हो अतर्द्वान, लुटा करके सोने-सा प्यार । पतिदेव के मुख की वह मुस्कराहट लुप्त हो गई। मैंने उन्हें एक बार कापते देखा। ऐसा जान पडा, उन्हे रोमाच हो रहा है। सहसा उनका दाहना हाथ उठकर उनकी छाती तक गया। उन्होंने लपी सांस ली और उनकी आँखों से आंसू की बूंदे निकलकर गालो पर -आ गई। तुरत मैंने