पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१०४

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" खुचड़ १०५ 'इतने भिखमगे श्रा कहाँ से जाते हैं ? ये सब काम क्यो नहीं करते। 'कोई आदमी इतना नीच नहीं होता, जो काम मिलने पर भीख मांगे। हाँ, अपग हो, तो दूसरी बात है । अपगों का भीख के सिवा और क्या सहारा हो सकता है ?' 'सरकार इनके लिए अनाथालय क्यों नहीं खुलवाती, 'जब स्वराज्य हो जायगा, तब शायद खुल जाय; अभी तो कोई अाशा नहीं है। मगर स्वराज्य भी धर्म ही से आयेगा।' 'लाखो साधु सन्यासी, पडे-पुजारी मुफ्त का माल उड़ाते क्या इतना धर्म काफी नही है ? अगर इस धर्म से स्वराज्य मिलता, तो कब का मिल चुका होता 'इसी धर्म का प्रसाद है कि हिंदू-जाति अभी तक जीवित है, नहीं कब को रसातल पहुंच चुकी होती । रोम, यूनान, ईरान, असीरिया किसी का अब निशान भी नहीं है। यह हिंदू-जाति है, जो अभी तक समय के क्रूर आघातों का सामना करती चली जाती है।' 'आप समझते होगे, हिंदू-जाति जीवित है। मैं तो उसे उसी दिन से मरा हुआ समझती हूँ, जिस दिन से वह अधीन हो गई । जीवन स्वाधीनता का नाम है, गुलामी तो मौत है।' कुदनलाल ने युवती को चकित नेत्रों से देखा, ऐसे विद्रोही विचार उसमें कहाँ से आ गये १ देखने मे तो वह बिलकुल भोली थी। समझे, कहीं सुन-सुना लिया होगा। कठोर होकर बोले- क्या व्यर्थ का विवाद करती हो। लजाती तो नहीं, ऊपर से और बक-बक करती हो। रामेश्वरी यह फटकार पाकर चुप हो गई । एक क्षण वहाँ खड़ी रही, धीरे-धीरे कमरे से चली गई। एक दिन कुदनलाल ने कई मित्रो की दावत की। रामेश्वरी सवेरे से- रसोई मे घुसी, तो शाम तक सिर न उठा सकी । उसे यह वेगार बुरी मालूम हो रही थी। अगर दोस्तों की दावत करनी थी, तो खाना बनवाने का कोई प्रबन्ध क्यों नहीं किया ! सारा बोझ उसी के सिर क्यों डाल दिया ? उससे