पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१०५

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१०६ मानसरोवर > एक बार पूछ तो लिया होता कि दाबत करूं या न करूँ। होता तब भी यहीं, जो अब हो रहा था। वह दावत के प्रस्ताव का बड़ी खुशी से अनुमोदन करती, तब वह समझती, दावत मै कर रही हूँ। अब वह समझ रही थी, मुझसे बेगार ली जा रही है। लौर, भोजन तैयार हुश्रा, लोगों ने भोजन किया और चले गये ; मगर मुंशीजी मुँह फुलाये बैठे हुए थे । रामेश्वरी ने कहा- तुम क्यो नहीं खा लेते, या अभी सबेरा है ? बाबू साहब ने अखि फाड़कर कहा-क्या खा लूँ, यह खाना है, या बैलो की सानी! रामेश्वरी के सिर से पांव तक आग लग गई । सारा दिन चूल्हे के सामने जली, उसका यह पुरस्कार ! बोली-मुझसे जैसा हो सका, बनाया । जो बात अपने बस की नहीं है, उसके लिए क्या करती ? 'पूड़ियाँ सब सेवड़ी हैं। 'होगी। 'कचौड़ी में इतना नमक था कि किसी ने छुआ तक नहीं।' 'होगा। 'हलुश्रा अच्छी तरह सुना नहीं-कचाधि पा रही थी।' 'आती होगी।' 'शोरबा इतना पतला था, जैसे चा 'होगा।' 'स्त्री का पहला धर्म यह है कि वह रसोई के काम मे चतुर हो ।' फिर उपदेशों का तार बँधा, यहाँ तक कि रामेश्वरी ऊबकर चली गई ! ( ४ ) पांच छः महीने गुज़र गये । एक दिन कुदनलाल के एक दूर के सबधी उनसे मिलने आये । रामेश्वरी को ज्यो ही उनकी खबर मिली, जल-पान के लिये मिठाई भेजी और महरी से कहला भेजा-आज यहीं भोजन कीजि- एगा । वह महाशय फूले न समाये । बोरिया-बंधना लेकर पहुंच गये और डेरा डाल दिया। एक हफ्ता गुज़र गया; मगर आप टलने का नाम भी नहीं लेते । श्राव-भगत मे कोई कमी होती, तो शायद उन्हें कुछ चिंता