पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/११२

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1 खुचड़ ११३ रामे० --मुझे तरकारी ले रखने का हुक्म न मिला था। मै पैसा-धेला ज़्यादा दे देती तो? कुदनलाल ने विवशता से दांत पीसकर कहा-आखिर तुम क्या चाहती हो? रामेश्वरी ने शात भाव जवाब दिया-कुछ नही, केवल अपमान नहीं चाहती। कुदन -तुम्हारा अपमान कौन करता है ? रामे o-श्राप करते हैं। कुदन० -तो मैं घर के मामले में कुछ न बोलू ? रामे० 0 --आप न बोलेगे, तो कौन बोलेगा। मैं तो केवल हुक्म की ताबेदार हूँ। रात रोटी दाल पर कटी। दोनो आदमी लेटे । रामेश्वरी को तो तुरत नींद आ गई । कु दनलाल बड़ी देर तक करवटे बदलते रहे। अगर रामेश्वरी इस तरह असहयोग करेगी, तो एक दिन भी काम न चलेगा। आज ही बड़ी मुश्किल से भोजन मिला। इसकी समझ ही उलटी है। मैं तो समझाता हूँ, यह समझती है, डाँट रहा हूँ। मुझसे बिना बोले रहा भी तो नहीं जाता।। लेकिन अगर बोलने का यह नतीजा है, तो फिर बोलना फिजूल है। नुकसान होगा, बला से ; यह तो न होगा कि दफ्तर से आकर बाज़ार भागूं । महरी से रुपये वसूल करने की बात इसे बुरी लगी, और थी भी वेजा। रुपये तो न मिले, उलटे महरी ने काम छोड़ दिया । रामेश्वरी को जगाकर बोले-कितना सोती हो तुम ? रामेo-मजूरों को अच्छी नींद आती है। कु दन०-चिढ़ानो मत, महरी से रुपये न वसूल करना । रामे० -वह तो लिये खड़ी है शायद । कु दन-उसे मालूम हो जायगा, तो काम करने आयेगी। रामे-अच्छी बात है कहला भेजूंगी। कु दन -आज से मैं कान पकड़ता हूँ, तुम्हारे बीच मे न बोलू गा। रामे०-और जो मैं घर लुटा दूं तो ?