पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१२०

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अत आगा-पीछा (१२१ 'युवक उसके पीछे-पीछे तेज़ी से चला आ रहा है । श्रद्धा को यह मालूम था कि लोगों ने उसका भाषण बहुत पसंद किया है । लेकिन इस नवयुवक की राय सुनने का अवसर उसे नहीं मिला था। उसने अपनी चाल धीमी कर दी । दूसरे ही क्षण वह नवयुवक उसके पास पहुंच गया। दोनों कई कदम चुपचाप चलते रहे। मे नवयुवक ने झिझकते हुए कहा--प्राज तो आपने कमाल कर दिया ! श्रद्धा ने प्रफुल्लता के स्रोत को दबाते हुए कहा-~-धन्यवाद ! यह आप- की कृपा है। नवयुवक ने कहा-मैं किस लायक हूँ। मैं ही नहीं, सारी सभा सिर धुन रही थी। श्रद्धा -क्या आप का शुभ स्थान यहीं है ? नवयुवक-जी हाँ, यहाँ मैं एम० ए० मे पढ़ रहा हूँ। यह ऊँच-नीच का भूत न जाने कब तक हमारे सिर पर सवार रहेगा। अभाग्य से मैं भी उन लोगों में हूँ, जिन्हें ससार नीच समझता है। मैं जाति का चमार हूँ। मेरे पिता स्कूलों के इंस्पेक्टर के यहाँ अर्दली थे। उनकी सिफारिश से स्कूल में भरती हो गया। तबसे भाग्य से लड़ता-भिड़ता चला आ रहा हूँ। पहले तो स्कूल के मास्टर मुझे छूते ही न थे। वह हालत तो अब नहीं रही। किंतु लड़के अब भी मुझमे खिंचे रहते हैं। मैं तो कुलीनता को जन्म से नहीं, धर्म से मानती हूँ। नवयुवक-यह तो आपकी वक्तृता ही से सिद्ध हो गया है। और इसी से श्रापसे बाते करने का साहस भी हुश्रा, नहीं तो कहाँ आप, और कहाँ मैं ! श्रद्धा ने अपनी आंखे नीची करके कहा-शायद आपको मेरा हाल श्रद्धा- मालूम नहीं। नवयुवक-बहुत अच्छी तरह मालूम है। यदि आप अपनी माताजी के दर्शन करवा सके, तो मैं आपका बड़ा आभारी होऊँगा। “वह आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्न होंगी ! शुभनाम ? 'मुझे भगतराम कहते हैं।