पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१२१

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१२२ मानसरोवर यह परिचय धीरे-धोरे स्थिर और दृढ़ होता गया ; मैत्री प्रगाढ़ होती गई। श्रद्धा की नज़रों में भगतराम एक देवता थे, और भगतराम के समक्ष श्रद्धा, मानवी रूप में देवी थी। एक साल बीत गया। भगतराम रोज़ देवी के दर्शनों को जाता । दोनों घंटो बैठे बाते किया करते । श्रद्धा कुछ भापण करती, तो भगतराम सब काम छोड़कर सुनने जाता । उनके मनसूवे एक थे, जीवन के आदर्श एक, रुचि एक, विचार एक । भगतराम अब प्रम और उसके रहस्यो की मार्मिक विवे. चना करता। उसकी बातों में 'रस' और 'अलकार' का कभी इतना सयोग न हुआ था। भावों के इंगित करने में उसे कमाल हो गया था। लेकिन ठीक उन अवसरों पर, जब श्रद्धा के हृदय मे गुदगुदी होने लगती, उसके कपोल उल्लास से रंजित हो जाते। भगतराम विषय पलट देता और जल्दी ही कोई बहाना बनाकर वहाँ से खिसक जाता। उसके चले जाने पर श्रद्धा हसरत के आँसू बहाती और सोचती--क्या इन्हें दिल से मेरा प्रम नहीं ? एक दिन कोकिला ने भगतराम को एकान्त में बुलाकर कहा-बेटा! अब तो मुन्नी से तुम्हारा विवाह हो जाय, तो अच्छा । जीवन का क्या भरोसा। कहीं मर जाऊँ, तो यह साध मन ही मे रह जाय । भगतराम ने सिर हिलाकर कहा--अम्मा । जरा इस परीक्षा में पास जाने दो। जीविका का प्रश्न हल हो जाने के बाद ही विवाह शोभा देता है। 'यह सब तुम्हारा ही तो है, क्या मैं साथ बाँध ले जाऊँगी?' 'यह आपकी कृपा है अम्माजी, पर इतना निर्लज्ज न बनाइए । मै तो आपका हो चुका, अब तो आप दुतकारे भी तो इस द्वार से नहीं टल सकता। मुझ-जैसा भाग्यवान् संसार मे और कौन है। लेकिन देवी के मदिर मे जाने से पहले कुछ पान-फूल तो पास होना ही चाहिए।' साल-भर और गुजर गया। भगतराम ने एम० ए० की उपाधि ली और अपने ही विद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्यापक हो गया। उस दिन कोकिला ने खूब दान-पुण्य किया। जब भगतराम ने आकर उसके पैरों पर सिर झुकाया, तो उसने उसे छाती से लगा लिया। उसे विश्वास था कि आज