पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१२६

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5 आगा-पीछा १२७ इसी समय भगतराम निराश की मूर्ति बने हुए कमरे के भीतर पाये। दोनों स्त्रियों ने उनकी ओर देखा । कोकिला की आँखों में शिकायत थी, और श्रद्धा की आँखो में वेदना । कोकिला की आखें कह रही थीं, यह क्या तुम्हारे रंग ढंग हैं १ श्रद्धा की आँखे कह रही थीं-इतनी निर्दयता ! भगतराम ने धीमे, वेदनापूर्ण स्वर मे कहा-आप लोगों को श्राज बहुत देर तक मेरी राह देखनी पड़ी , मगर मैं मजबूर था , घर से अम्मा और दादा आये हुए हैं, उन्हीं से बाते कर रहा था। कोकिला बोली-घर पर तो सब कुशल है न ? भगतराम ने सिर झुकाये हुए कहा--जी हाँ सब कुशल है। मेरे विवाह का मसला पेश था। पुराने खयाल के आदमी हैं, किसी तरह भी राजी नहीं होते। कोकिला का मुख तमतमा उठा, बोली-हाँ, क्यो राज़ी होंगे। हम लोग उनसे भी नीच हैं न लेकिन जब तुम उनकी इच्छा के दास थे, तो तुम्हे उनसे पूछकर यहाँ आना-जाना चाहिए था। इस तरह हमारा अपमान करके तुम्हें क्या मिला । यदि मुझे मालूम होता कि तुम अपने मा-बाप के इतने गुलाम हो, तो यह नौबत ही काहे को पाती। श्रद्धा ने देखा कि भगतराम की आँखों से आंसू गिर रहे हैं। विनीत भाव से बोली-अम्माजी, मा बाप की मरजी का गुलाम होना कोई पाप नहीं है। अगर मैं आपकी उपेक्षा करूँ, तो क्या आपको दुःख न होगा ? यही हाल उन लोगों का भी तो होगा। श्रद्धा यह कहती हुई अपने कमरे की ओर चली, और इशारे से भगत राम को भी बुलाया । कमरे में बैठकर दोनों कई मिनट तक पृथ्वी की ओर ताकते रहे। किसी में भी साहस न था कि उस सन्नाटे को तोड़े। अत मे भगतराम ने पुरुषोचित वीरता से काम लिया और कहा-श्रद्धा, इस समय मेरे हृदय के भीतर तुमुल युद्ध हो रहा है। मै शब्दो मे अपनी दशा बयान नही कर सकता। जी चाहता है कि विष खाकर जान दे दूं। तुमसे अलग रहकर जीवित नहीं रह सकता-केवल तड़प सकता हूँ। मैंने न-जाने उनकी कितनी खुशामद की, कितना रोया, कितना गिड़गिडाया;