पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१३३

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१३४ मानसरोवर यह जवाब, यह प्रत्युत्तर कितना रोमाचकारी और हृदय विदारक था! हाय ! वह कैसे ऐसी निठुर हो गई ! उसका प्यारा उसकी नज़रों के सामने दम तोड़ रहा था ! उसके लिए-उसकी सान्त्वना के लिए एक शब्द भी मुंह से न निकला ! यही तो खून का असर है- इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता था। आज पहली बार श्रद्धा को कोकिला की वेटी होने का पछतावा हुआ। वह इतनी स्वार्थरत, इतनी हृदय-हीन है-आज ही उसे मालूम हुआ । वह त्याग, वह सेवा, वह उच्चादर्श जिसपर उसे घमंड था, ढहकर श्रद्धा के सामने गिर पड़ा; वह अपनी ही दृष्टि में अपने को हेय समझने लगी। उस स्वर्गीय प्रम का ऐसा नैराश्यपूर्ण उत्तर वेश्या की पुत्री के अतिरिक्त और कौन दे सकता है। श्रद्धा उसी समय कमरे से बाहर निकल कर, वायु वेग से सीढियाँ उतरती हुई नीचे पहुंची, और भगतराम के मकान की ओर दौड़ी। वह आखिरी बार उससे गले मिलना चाहती थी। अतिम बार उसके दर्शन करना चाहती थी। वह अनत प्रेम के कठिन बधनो को निभायेगी, और अतिम श्वास तक उसी की ही बनकर रहेगी। रास्ते में कोई सवारी न मिली। श्रद्वा थकी जा रही थी। सिर से पांव तक पसीने से नहाई हुई थी ! न मालूम कितनी बार वह ठोकर खाकर गिरी और फिर उठकर दौड़ने लगी। उसके घुटनों से रक्त निकल रहा था, साड़ी कई जगह से फट गई थी, मगर उसे उस वक्त अपने तन-बदन की सुध तक न थी। उसका एक-एक रोश्रा सहस्र कंठ हो-होकर ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था, कि उस प्रातःकाल के दीपक की लौ थोड़ी देर और बची रहे । उसके मुंह से एक बार 'श्रद्धा' का शब्द सुनने के लिए उसकी अतरात्मा कितनी ब्याकुल हो रही थी। वे वल यही एक शब्द सुनकर फिर उसकी कोई भी इच्छा अपूर्ण न रह जायगी, उसकी सारी अाशाएँ सफल हो जायेगी, सारी साध पूर्ण हो जायगी। श्रद्वा को देखते ही चौधराइन ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली- बेटी, तुम कहाँ चली गई थीं १ दो बार तुम्हाग नाम लेकर पुकार चुके हैं। -