पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१४

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प्रेरणा जिसकी तरफ से इतने निराश हो गये थे, वह अब इसे पेंद को सुशोभित कर रहा है। वह मुझसे अपने सदुद्योग का बखान चाहता था। मुझे अब अपनी भूल मालूम हुई । एक सपन्न आदमी के सामने समृद्धि की निदा उचित नहीं। मैंने तुरत बात पलटकर कहा-मगर तुम अपना हाल तो कहो । तुम्हारी यह काया-पलट कैसे हुई। तुम्हारी शरारतों को याद करता हूँ तो अब भी रोएँ खड़े हो जाते हैं। किसी देवता के वरदान के सिवा और तो कहीं यह विभति न प्रात हो सकती थी। सूर्यप्रकाश ने मुसकराकर कहा-प्रापका आशीर्वाद था। मेरे बहुत अाग्रह करने पर सूर्यप्रकाश ने अपना वृत्तात सुनाना शुरू किया- 'आपके चले जाने के कई दिन बाद मेरा ममेरा भाई स्कूल में दाखिल हुा । उसकी उन आठ नौ साल से ज्यादा न थी। प्रिंसिपल साहब उसे होस्टल में न लेते थे और न मामा साहब उसके ठहरने का प्रबंध कर सकते थे । उन्हें इस सकट में देखकर मैंने प्रिंसिपल साहब से कहा-उसे मेरे कमरे में ठहरा दीजिए। प्रिंसिपल साहब ने इसे नियम-विरुद्ध बतलाया। इसपर मैने बिगड़कर उसी दिन होस्टल छोड़ दिया, और एक किराये का मकान लेकर मोहन के साथ रहने लगा। उसकी मा कई साल पहले मर चुकी थी। इतना दुबला-पतला, कमजोर और ग़रीब लड़का था कि पहले ही दिन से सुझे उसपर दया याने लगी। कभी उसके सिर में दर्द होता, कभी ज्वर हो अाता | आये दिन कोई न कोई बीमारी खड़ी रहती थी। इधर साँझ हुई और उसे झाकियां आने लगीं । बडी मुश्किल से भोजन करने उठता। दिन चढ़े तक सोया करता और जब तक मैं गोद मे उठाकर बिठा न देता, उठने का नाम न लेता । रात को बहुधा चौककर मरी चारपाई पर आ जाता और मेरे गले से लिपटकर सोता। मुझे उसपर कभी क्रोध न पाता। कह नहीं सकता, क्यों मुझे उससे प्रम हो गया। मै जहां पहले नौ बजे सोकर उठता था, अब तड़के उठ बैठता और उसके लिए दूध गर्म करता । फिर उसे उठा- कर हाथ-मुँह धुलाता और नाश्ता कराता। उसके स्वास्थ्य के विचार से नित्य वायु सेवन को ले जाता। मैं जो कभी किताब लेकर न बैठता था, उसे घटों पढ़ाया करता । मुझे अपने दायित्व का इतना ज्ञान कैसे हो गया, इसका मुझे .