पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१४१

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१४२ मानसरोवर

देवताओं को खिलाना उसकी व्यावसायिक बुद्धि को न जचा । औरों से अपने कृ य को गुप्त रखना भी चाहता था; इसलिए किसी को सूचना भी न दी, यहाँ तक कि बटी से भी न कहा--बटी तो भोजन बना रही थी, वह बकरे की तलाश में घर से निकल पडा। बंटी ने पूछा-अब भोजन करने के जून कहाँ चले ? 'अभी आता हूँ। 'मत जानो, मुझे डर लगता है ।' भोंदू स्नेह के नवीन प्रकाश से खिलकर बोला-मुझे देर न लगेगी । तू वह गॅड़ासा अपने पास रख ले । उसने गॅडासा निकाल कर बटी के पास दिया और निकला। बकरे की समस्या बेढब थी। रात को बकरा कहाँ से लाता । इस समस्या को भी उसने एक नये ढग से हल किया। पास की बस्ती में एक गड़ेरिये के पास कई बकरे पले थे। उसने सोचा, वही से एक बकरा उठा लाऊँ। देवीजी को अपने बलिदान से मतलब है, या इससे कि बकरा कैसे आया और कहाँ से आया। मगर बस्ती के समीप पहुंचा ही था कि पुलीस के चार चौकीदारों ने उसे गिरफ्तार कर लिया और मुश्के बांधकर थाने ले चले । बटी भोजन पकाकर अपना बनाव-सिगार करने लगी। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ता था। आनद से खिली जाती थी। आज जीवन मे । पहली बार उसके सिर मे सुगधित तेल पड़ा। आईना उसके पास एक पुराना अंधा-सा पड़ा हुआ था। आज वह नया आईना लाई थी। उसके सामने बैठकर उसने अपने केश सँवारे । मुंह पर उबटन मला। साबुन लाना भूल गई थी । साहब लोग साबुन लगाने ही से तो इतने गोरे हो जाते हैं। साबुन होता तो उसका रग कुछ तो निखर जाता। कल वह अवश्य साबुन की कई बट्टियाँ लायेगी, और रोज़ लगायेगी। केश गूंथकर उसने माथे पर अलसी का लुआब लगाया, जिसमें बाल न बिखरने पाये। फिर पान लगाये, चूना ज्यादा हो गया था। गलफडो में छाले पड गये ; लेकिन उसने समझा,शायद