पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१४८

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प्रेम का उदय १४६ छाई थीं और मूसलधार वर्षा हो रही थी ! भोंदू की सिरकी अब भी निजन स्थान पर खड़ी थी, भोंदू खटोली पर पड़ा हुआ था ! उसका चेहरा पीला पड़ गया था, और देह जैसे सूख गई थी। वह सशंक आँखो से वर्षा की ओर देखता है, चाहता है उठकर बाहर देखू , पर उठा नहीं जाता। बटी सिर पर घास का एक बोझ लिये पानी मे लथ-पथ आती दिखाई दी। वही गुलाबी साड़ी है, पर तार-तार ; पर उसका चेहरा प्रसन्न है। विषाद और ग्लानि के बदले आँखो से अनुराग टपक रहा है । गति में वह चपलता, अगों में वद सजीवता है, जो चित्त की शाति का चिह्न है । भोंदू ने क्षीण स्वर में कहा-तू इतना भीग रही है, कहीं बीमार पड़ गई, तो कोई एक चूंट पानी देनेवा ना भी न रहेगा। मैं कहता हूँ, तू क्यों इतना मरती है। दो ग? तो बेच चुकी थी। तीसरा गट्ठा लाने का काम क्या था। यह हाँडी में क्या लाई है ? बंटी ने हांडी को छिपाते हुए कहा-कुछ तो नहीं है, कैसी होड़ी ? भोंदू जोर लगाकर खटोली से उठा, अचल के नीचे छिपी हुई हाड़ी खोल दी और उसके भीतर नजर डालकर बोला-अभी लौटा, नहीं मैं हाँडी फोड़ दूंगा। बंटी ने धोती से पानी निचोड़ते हुए कहा-ज़रा आईने में सूरत देखो। घी दूध कुछ न मिलेगा, तो कैसे उठोगे १-कि सदा खाट सेने का ही विचार है। भोंदू ने खटोली पर लेटते हुए कहा-अपने लिए तो एक साड़ी नहीं लाई, कितना कहके हार गया ; मेरे लिए घी और दूध सब चाहिए। मैं घी न खाऊँगा। बटी ने मुसकराकर कहा-इस लिए तो घी खिलाती हूँ, कि तुम जल्दी से काम-धधा करने लगी और मेरे लिए साड़ी लायो । भोंदू ने भी मुस्कराकर कहा-तो आज जाकर कहीं सेंध मा? बंटी ने उसके गाल पर एक ठोकर देकर कहा-पहले मेरा गला काट देना, तब जाना।