पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१५३

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१५४ मानसरोवर कल्लू निर्जीव की भांति खाट पर गिर पड़ा और बोला-तो रूप मेरे बस का नहीं है । दैव ने कुरूप बना दिया, तो सुदर कैसे बन जाऊँ। कल्लू ने अगर मुलिया को खौलते हुए तेल में डाल दिया होता, तो भी उसे इतनी पीड़ा न होती। . . कल्लू उस दिन से कुछ खोया-खोया-सा रहने लगा। जीवन में न वह उत्साह रहा, न वह अानद । हँसना-बोलना भूल-सा गया। मुलिया ने उसके साथ जितना विश्वासघात किया था, उससे कहीं ज्यादा उसने समझ लिया । और यह भ्रम उसके हृदय में केवड़े के समान चिपट गया । बह घर अब उसके लिए केवल लेटने-बैठने का स्थान था और मुलिया केबल भोजन बना देनेबाली मशीन । श्रानद के लिए, वह कभी-कभी ताड़ीखाने चला जाता, या चरस के दम लगाता। मुलिया उसकी दशा देख-देख अदर ही अदर कुढ़ती थी। वह उस बात को उसके दिल से निकाल देना चाहती थी, इसलिए उसकी सेवा और मन लगाकर करती। उसे प्रसन्न करने के लिए बार-बार प्रयत्न करती; पर वह जितना ही उसको खींचने की चेष्टा करती थी, उतना ही वह उससे विचलता था, जैसे कोई कटिये में फंसी हुई मछली हो । कुशल यह थी कि राजा जिस अँग्रेज के यहाँ खानसामा था, उसका तबादला हो गया और राजा उसके साथ चला गया था, नहीं दोनों भाइयों में से किसी न किसी का जरूर खून हो जाता । इस तरह साल भर बीत गया। एक दिन कल्लू रात को घर लौटा, ती उसे ज्वर था। दूसरे दिन उसकी देह मे दाने निकल आये । मुलिया ने समझा माता है। मान-मनौती करने लगी ; मगर चार-पांच दिन में ही दाने बढ़कर श्रावले पड़ गये और मालूम हुआ यह माता नहीं हैं, उपदेश है । कल्लू की कलुषित भोग-लालसा का यह फल था। रोग इतनी भयकरता से बढने लगा कि आवलों में मवाद पड़ गया और उनमें से ऐसी दुर्गध उड़ने लगी कि पास बैठते नाक फटती थी। देहात में जिस प्रकार का उपचार हो सकता था, वह मुलिया करती थी, पर कोई लाभ