पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१५५

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१५६ मानसरोवर , कई महीने के बाद राजा छुट्टी लेकर घर आया और कल्लू की घातक बीमारी का हाल सुना, तो दिल में खुश हुअा; तीमारदारी के बहाने से कल्लू के घर आने-जाने लगा। कल्लू उसे देखकर मुँह फेर लेता, लेकिन वह दिन में दो-चार बार पहुँच ही जाता। एक दिन मुलिया खाना पका रही थी कि राजा ने रसोई के द्वार पर प्राकर कहा-भाभी, क्यों अब मुझपर दया न करोगी! कितनी बेरहम हो तुम ! कै दिन से तुम्हें खोज रहा हूँ, पर तुम मुझमे भागती फिरती हो । भैया अब अच्छे न होंगे। इन्हें गर्मी हो गई है। इनके साथ क्यो अपनी जिंदगी ख़राब कर रही हो। तुम्हारी फूल-सी देह सूख गई है। मेरे साथ चलो, कुछ जिंदगी की बहार उड़ाये। यह जवानी बहुत दिन न रहेगी। यह देखो, तुम्हारे लिए एक करनफूल लाया हूँ, जरा पहनकर मुझे दिखा दो। उसने करनफूल मुलिया की ओर बढा दिया। मुलिया ने उसकी ओर देखा भी नहीं। चूल्हे की ओर ताकती हुई बोली-लाला, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मुझे मत छेड़ो। यह सारी विपत्ति तुम्हारी लाई हुई है । तुम्हीं मेरे शत्रु हो । फिर भी तुम्हें लाज नहीं आती । कहते हो, भैया अब किस काम के हैं ? मुझे तो अब वह पहले से कहीं ज्यादा अच्छे लगते हैं । तब मैं न होती, तो वह दूसरी सगाई कर लाते, अपने हाथों ठोक खाते । आज मैं ही उनका श्राधार हूँ। वह मेरे सहारे जीते । अगर मैं इस संकट मे उनके साथ दना करूँ, तो मुझसे बढ़कर अधम कौन होगा। और जब मैं जानती हूँ कि इस संकट का कारण भी मैं ही हूँ। राजा ने हँसकर कहा -यह तो वही हुआ, जैसे किसी की दाल गिर गई, तो उसने कहा-मुझे तो सूखी ही अच्छी लगती है। मुलिया ने सिर उठाकर उसकी ओर सजोत नेत्रों से ताकते हुए कहा- तुम उनकी पैरों की धूल के बराबर नहीं हो लाला, क्या कहते हो तुम? उजले कपड़े और चिकने मुखडे से कोई आदमी सुदर नहीं होता। मेरी आँखों में तो उनके बराबर कोई दिखाई नहीं देना। कल्लू ने पुकारा-मूला, थोड़ा पानी दे। मुलिया पानी लेकर दौड़ी। चलते-चलते कानफूल को ऐसा ठुकराया कि श्रागन में जा गिरा।