पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१५६

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मती राजा ने जल्दी से करनफूल उठा लिया और क्रोध में भरा हुआ चल दिया। तो शायद P रोग दिन-दिन बढ़ता गया। ठिकाने से दवा-दारू होती, अच्छा हो जाता, मगर अकेली मुलिया क्या क्या करती १ दरिद्रता में बीमारी कोढ का खाज है आखिर एक दिन परवाना वा पहुंचा। मुलिया घर का काम-धधा करके आई, तो देखा कल्लू की सांस चल रही है। घबड़ाकर बोली-कैसा जी है तुम्हारा कल्लू ने सजल और दीनता भरी आँखों से देखा और हाथ जोड़कर सर नीचा कर लिया । यही अतिम विदाई थी। मुलिया उसके सीने पर सिर रखकर रोने लगी और उन्माद की दशा मे उसके पाहत हृदय से रक्त की बूंदों के समान शब्द निकलने लगे- तुमसे इतना भी न देखा गया भगवन् ! उसपर न्यायी और दयालु कहलाते हो । इसी लिए तुमने जन्म दिया ! यही खेल खेलने के लिए । हाय नाथ ! तुम तो इतने निष्ठुर न थे ! मुझे अकेली छोड़कर चले जा रहे हो ! हाय ! अब कौन मूला कहकर पुकारेगा ! अब किसके लिए कुएँ से पानी खीचूंगी ! किसे बैठाकर खिलाऊँगी, पखा डुलाऊँगी ! सब सुख हर लिया, तो मुझे भी क्यों नहीं उठा लेते ! सारा गांव जमा हो गया। सभी समझा रहे थे । मुलिया को धैर्य न होता था। यह सब मेरे कारण हुआ, यह बात उसे नहीं भूलती । हाय ! उसे भगवान ने सामर्थ्य दिया होता, तो आज उसका सिरताज यो उठ जाता ? शव की दाह-क्रिया की तैयारियां होने लगीं। (७) कल्लू को मरे छः महीने हो गये। मुलिया अपना कमाती है, खाती है और अपने घर में पड़ी है। दिन-भर काम-धये से छुट्टी नहीं मिनती। हॉ, रात को एकात में रो लिया करती है। उधर राजा की स्त्री भी मर गई , मगर दो चार दिन के बाद वह फिर