पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१६०

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मृतक मोज १६१ धनीराम बोले-बहूजी, भाई रामनाथ की अकाल मृत्यु से हम लोगों को जो दुःख हुआ है, बह हमारा दिल ही जानता है। अभी उनकी उम्र ही क्या थी, लेकिन भगवत की इच्छा। अब तो हमारा यही धर्म है कि ईश्वर पर भरोसा रखे और आगे के लिये कोई राह निकाले। काम ऐसा करना चाहिए कि घर की आबरू बनी रहे और भाईजी की आत्मा सतुष्ट हो । कुबेरदास ने सुशीला को कनखियों से देखते हुए कहा-मर्यादा बड़ी चीज़ है । उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। लेकिन कमली के बाहर पाव निकालना-भी तो उचित नहीं। कितने रुपये हैं तेरे पास बहू ? क्या कहा, कुछ नहीं! सुशीला-घर में रुपये कहां हैं सेठजी । जो थोड़े-बहुत थे, वह बीमारी मे उठ गये। धनीराम-तो यह नई समस्या खड़ी हुई । ऐसी दशा में हमें क्या करना चाहिए, कुबेरदासजी! कुबेरदास-जैसे हो, भोज तो करना ही पड़ेगा, हाँ अपनी सामर्थ देखकर काम करना चाहिए। मैं कर्ज लेने को न कहूँगा, हाँ घर में जितने रुपयों का प्रबध हो सके, उस में हमें कोई कसर न छोड़नी चाहिए । मृत जीव के साथ भी तो हमारा कुछ कर्त्तव्य है। अब तो वह फिर कभी न पायेगा, उससे सदैव के लिए नाता टूट रहा है । इसलिए सब कुछ हैसियत के मुताबिक होना चाहिए । ब्राह्मणों को तो वही पड़ेगा कि मर्यादा का निबाह हो । धनीराम-तो क्या तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है बहूजी ? दो-चार हजार भी नहीं! सुशीला-मैं आपसे सत्य कहती हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है। ऐसे समय झूठ बोलूंगी? धनीराम ने कुबेरदास की ओर अर्ध-अविश्वास से देखकर कहा-तब तो यह मकान बेचना पड़ेगा। कुवेरदास-इसके सिवा और क्या हो सकता है । नाक काटान तो अच्छा नहीं । रामनाथ का कितना नाम था, बिरादरी के स्तभ थे। यही इस समय एक उपाय है। २० हजार मेरे आते हैं। सूद-बट्टा लगाकर कोई