पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१६८

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मृतक भोज ८१६९ मोहन अधीर होकर बोला-अम्मा, मुझे रूखी रोटियाँ ही दे दो। बड़ी भूख लगी है। + सुशीला-अभी दाल कच्ची है भैया। रेवती-मेरे पास एक पैसा है । मैं उसका दही लिये आती हूँ। सुशीला-तूने पैसा कहाँ पाया ? रेवती-मुझे कल अपनी गुडियों की पेटारी में मिल गया था। सुशीला-लेकिन जल्द पाइयो । रेवती दौड़कर बाहर गई और जरा देर में एक पत्ते पर जरा-सा दही ले आई । मा ने रोटी सेककर दे दी। मोहन दही से खाने लगा। आम लड़कों की भांति वह भी स्वार्थी था। बहन से पूछा भी नहीं। सुशीला ने कडी आँखों से देखकर कहा-बहन को भी दे दे। अकेला ही खा जायेगा। मोहन लजित हो गया। उसकी आँखे डबडबा आई । रेवती बोली-नहीं अम्मा, कितना मिला ही है। तुम खाओ मोहन, तुम्हें जल्दी नींद श्रा जाती है । मैं तो दाल पक जायगी तो खाऊँगी। उसी वक्त दो आदमियों ने श्रावाज़ दी । रेवती ने बाहर जाकर पूछा । यह सेठ कुवेरदास के आदमी थे। मकान खाली कराने श्राये थे। क्रोध सुशीला की खेि लाल हो गई । बरोठे में आकर कहा-अभी मेरे पति को पीछे हुए एक महीना भी नहीं हुआ, मकान खाली कराने की धुन सवार हो गई । मेरा ५० हजार का घर ३० हजार में ले लिया, पांच हजार सूद के उड़ाये, फिर भी तस्कीन नहीं होती। कह दो मैं अभी खाली नहीं करूँगी। मुनीम ने नम्रसा से कहा- वाईजी, मेरा क्या अखत्यार है। मैं तो वेवल सदेसिया हूँ। जब चीन दूसरे की हो गई, तो आपको छोड़ना ही पड़ेगी। झझट करने से क्या मतलब । सुशीला भी समझ गई, ठीक ही कहता है । गाय हत्या के बल कै दिन खेत चरेगी। नर्म होकर बोली-सेठजी से कहो मुझे दस-पांच दिन की मुहलत दें। लेकिन नहीं, कुछ मत कहो । क्यों दस-पांच दिन के लिए किसी ।