पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१६९

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१७० मानसरोवर का एहसान लू । मेरे भाग्य में इस घर मे रहना लिखा होता, तो निकलता ही क्यो ? मुनीम ने पूछा-तो कल सवेरे तक खाली हो जायेगा? सुशीला- हाँ, हा कहती तो हूँ, लेकिन सबेरे तक क्यों, मैं अभी खाली किये देती हूँ। मेरे पास कौन-सा बड़ा सामान ही है । तुम्हारे सेठजी का रात भर का किराया मारा जायगा । जाकर ताला वाला लामो या लाये हो ? मुनीम-ऐसी क्या जल्दी है बाई। कल सावधानी से खाली कर दीजिएगा। सुशीला-कल का झगड़ा क्यो र मुनीमजी, आप जाइए, ताला लाकर डाल दीजिए । यह कहती हुई सुशीला अदरं गई, बच्चों को भोजन कराया, एक रोटी श्राप किसी तरह निगली, बरतन धोये, फिर एक एका मॅगवाकर उसपर अपना मुख्तसर सामान लादा और भारी हृदय से उस घर से हमेशा के लिए विदा हो गई। जिस वक्त यह घर बनवाया था, मन में कितनी उमगे थीं। इसके प्रवेश मे कई हज़ार ब्राह्मणों का भोज हुआ था। सुशीला को इतनी दौड़-धूप करनी पड़ी थी कि वह महीने भर बीमार रही थी। इसी घर में उसके दो लड़के मरे थे। यहीं उसका पति भरा था। मरनेवालों की स्मृतियों ने उसकी एक एक ईट को पवित्र कर दिया था। एक-एक पत्थर मानों उसके हर्ष से सुखी और उसके शोक से दुखी होता था। वह घर आज उससे छूटा जा रहा है । उसने रात एक पड़ोसी के घर में काटी और दूसरे दिन १०) महीने पर एक गली में दूसरा मकान ले लिया। इस नये कमरे में इन अनाथों ने तीन महीने जिस कष्ट से काटे, वह समझनेवाले समझ सकते हैं। भला हो बेचारे सतलाल का । वह दस-पांच रुपये से मदद कर दिया करता था। अगर सुशीला दरिद्र घर की होती, पिसाई करती; कपड़े सीती, किसी के घर में टहल करती; पर जिन कामों को बिरादरी नीचा समझती है, उनका सहारा कैसे लेती। नहीं तो लोग कहते, यह सेठ' -रामैनाथ की स्त्री है.! उस नाम की भी तो लाज रखनी