पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१७

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१६ मानसरोवर समझा । मोहन को मामाजी के पास भेजकर मैं काश्मीर चला गया। दो सहीने के बाद लौटा, तो मालूम हुआ मोहन बीमार है। काश्मीर में मुझे बार-बार मोहन की याद आती थी और जी चाहता था, लौट जाऊँ। मुझे उस पर इतना प्रेम है, इसका अंदाज़ मुझे काश्मीर जाकर हुआ लेकिन मित्रो ने पीछा न छोड़ा । उसकी बीमारी की खबर पाते ही मैं अधीर हो उठा और दूसरे ही दिन उसके पास जा पहुंचा । मुझे देखते ही उसके पीले और सूखे हुए चेहरे पर आनंद की स्फूर्ति झलक पड़ी। मैं दौड़कर उसके गले से लिपट गया । उसकी आँखों मे वह दूरदृष्टि और चेहरे वह अलौकिक अाभा थी, जो मॅडराती हुई मृत्यु की सूचना देती है। मैने अावेश से कांपते हुए स्वर मे पूछा-यह तुम्हारी क्या दशा है मोहन ! दो ही महीने में यह नौबत पहुंच गई ? मोहन ने सरल मुसकान के साथ कहा--आप काश्मीर की सैर करने गये थे, मै आकाश की सैर करने जा रहा हूँ। 'मगर यह दुःख कहानी कहकर मैं रोना और रुलाना नहीं चाहता। मेरे चले जाने के बाद मोहन इतने परिश्रम से पढने लगा, मानों तपस्या कर रहा हो । उसे यह धुन सवार हो गई थी कि साल-भर की पढाई दो महीने में समाप्त कर ले और स्कूल खुलने के बाद मुझसे इस श्रम का प्रशसा-रूपी उप. हार प्राप्त करे। मै किस तरह उसकी पीठ ठोकूँगा, शाबाशी दूंगा, अपने मित्रों से बखान करूँगा, इन भावनात्रो ने अपने सारे बालोचित उत्साह और तल्लीनता के साथ उसे वशीभूत कर लिया। मामाजी को दफ्तर के कामो मे इतना अवकाश कहाँ कि उसके मनोरजन का ध्यान रखे । शायद उसे प्रतिदिन कुछ न कुछ पढते देखकर वह दिल मे खुश होते थे। उसे खेलते देखकर वह ज़रूर डांटते । पढते देखकर भला क्या कहते । फल यह हुआ कि मोहन को हल्का-हल्का ज्वर आने लगा ; किन्तु उस दशा में भो उसने पढ़ना न छोड़ा । कुछ और व्यतिक्रम भी हुए, ज्वर का प्रकोप और भी पर उस दशा में भो ज्वर कुछ हल्का हो जाता, तो किताबे देखने "लगता था। उसके प्राण मुझ मे ही बने रहते थे । ज्वर की दशा में भी नौकरों से पूछता- भैया का पत्र पाया ? वह कब आयेगे ? इसके सिवा और कोई दूसरी अभिलाषा न थी। अगर मुझे मालूम होता कि मेरी, काश्मीर-यात्रा - बढा n -