पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१८६

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१८७ भूत उनकी भावनाएँ कभी इतनो उल्लासमयी न थीं। उन्हें अपने अगो मे फिर जवानी की स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था। वह सोचते, बिन्नी को मैं अपनी पुत्री समझता था; पर वह मेरी पुत्रो है तो नहीं। इस तरह समझने से क्या होता है ? कौन जाने, ईश्वर को यही मजूर हो ; नहीं तो बिन्नी यहाँ आती ही क्यों ? उसने इसी बहाने से यह संयोग निश्चत कर दिया होगा। उसकी लीला तो अपरंपार हैं । पडितजी ने वर के पिता को सूचना दे दी कि कुछ विशेष कारणों से इस साल विवाह नहीं हो सकता। विंध्येश्वरी को अभी तक कुछ खबर न थी कि मेरे लिए क्या क्या षड्यत्र रचे जा रहे हैं। वह खुश थी कि मैं भैयाजी की सेवा कर रही हूँ, और भैयाजी मुझसे प्रसन्न हैं। बहन का इन्हें बडा दुःख है। मैं न रहूँगी, तो यह कहीं चले जायेंगे-कौन जाने, साधु-सन्यासी हो जायें | घर मे कैसे मन लगेगा। वह पडितजी का मन बहलाने का निरतर प्रयत्न करती रहती थी। उन्हें कभी मनमारे न बैठने देती। पडितजी का मन अब कचहरी में न लगा था। घंटे दो घटे बैठकर चले आते थे । युवकों के प्रम मे विकलता होती है, और वृद्धो के प्रेम में श्रद्धा । वे अपनी यौवन की कमी को खुशामद से, मीठी बातों से और हाज़िरबाशी से पूर्ण करना चाहते हैं । मगला को मरे अभी तीन ही महीने गुजरे थे कि चौबेजी ससुराल पहुंचे। सास ने मुँह-मांगी मुराद पाई । उसके दो पुत्र थे । घर में कुछ पूँजो न थी। उनके पालन और भिक्षा के लिए कोई ठिकाना नजर न आता था। मंगला मर ही चुको थी। लड़की का ज्यों ही विवाह हो जायगा, वह अपने घर की हो रहेगी। फिर चौबे से नाता ही टूट जायगा। वह इसी चिंता मे पड़ी हुई थी कि चौवेजी पहुंचे, मानों देवता स्वय वरदान देने आये हों। जब चौवेजी भोजन करके लेटे, तो सास ने कहा- भैया, अभी कहीं बातचीत हुई कि नहीं ? पंडित-अम्मा, अव मेरे विवाह की बातचीत क्या होगी? सास-क्यों भैया, अभी तुम्हारी उम्न ही क्या है ! , 7