पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१८८

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5 भूत १८६ माता-जितने ही दिन उनकी से करोगी, उतना ही उनका स्नेह बढ़ेगा; और तुम्हारे जाने से उन्हें उतना ही दुःख भी अधिक होगा। बेटी, सच तो यह है कि वह तुम्हीं को देखकर जीते हैं। इधर तुम्हारी डोली उठी और उधर उनका घर सत्यनाश हुआ। मैं तुम्हारी जगह होती, तो उन्हीं से ब्याह कर लेती। विंध्ये ०-ऐ हटो अम्मा, गाली देती हो! उन्होंने मुझे वेटी करके पाला हैं। मैं भी उन्हें अपना पिता... माता-चुप रह पगली, कहने से क्या होता है ? विंध्ये०-अरे सोच तो अम्मा, कितनी वेढगी बात है ! माता-मुझे तो इसमे कोई बेढगापन नहीं देख पडता। विंध्ये०-क्या कहती हो अम्मा, उनसे मेरा मैं तो लाज के मारे मर जाऊँ, उनके सामने ताक न सकूँ । वह भी कभी न मानेगे। मानने की बात भी हो कोई। माता-उनका जिम्मा मैं लेती हूँ। मैं उन्हें राजी कर लूंगी । तू रानी हो जा। याद रख. यह कोई हँसी-खुशी का व्याह नहीं है, उसकी प्राणरक्षा की बात है, जिसके सिवा ससार में हमारा और कोई नहीं है। फिर अभी उनकी कुछ ऐसी उम्न भी तो नही है । पचास से दो ही चार साल ऊपर होंगे। उन्होंने एक ज्योतिषी से पूछा भी था। उसने उनकी कु डली देखकर बताया है कि आपकी जिदगी कम-से-कम ७० वर्ष की है। देखने-सुनने में भी वह सौ दो सौ मे एक श्रादमी हैं। बातचीत मे चतुर माता ने कुछ ऐसा शब्द व्यूह रचा कि सरला बालिका उसमे से निकल न सकी। माता जानती थी कि प्रलोभन का जादू इसपर न चलेगा। धन का, आभूषणों का, कुल-सम्मान का, सुखमय जीवन का उसने ज़िक तक न किया । उसने केवल चौवेजी की दयनीय दशा पर ज़ोर दिया । अत को विंध्येश्वरी ने कहा-अम्मा, मैं जानती हूँ कि मेरे न रहने से उनको बडा दुःख होगा ; यह भी जानती हूँ कि मेरे जीवन में सुख नहीं लिखा है । अच्छा, उनके हित के लिए मैं अपना जीवन बलिदान कर दूंगी। ईश्वर की यही इच्छा है, तो यही सही ।