पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१९६

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सवा सेर गेहूँ १९७ लिए क्यों काटे बोऊँ ! मगर यह कोई नियाव नहीं है । तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण होके तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घडी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बडा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूंगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा। विप्र-वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यो होने लगा। वहीं तो सब अपने ही भाई-बधु हैं । ऋषि मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने बिगड़ेगी सँभाल लेगे । तो कब देते हो। शकर-मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से मांग-जांचकर लाऊँगा तभी न दूंगा विप्र-मै यह न मानूंगा। सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा। गेहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो। शकर- मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो चाहे दस्तावेज लिखाओ, किस हिसाब से दाम रक्खगे? विप्र-बाजार-भाव पांच सेर का है, तुम्हे सवा पांच सेर का काट दूंगा। -जब दे ही रहा हूँ तो बाज़ार-भाव काढूँगा, पाव भर छुडाकर क्यो दोपी बनू । हिसाब लगाया गया तो गेहूँ के दाम ६०) हुए । ६०) का दस्तावेज लिखा गया, ३) सैकड़े सूद । साल भर मे न देने पर सूद का दर २॥ 1) का स्टाम्प, १) दस्तावेज की तहरी शकर को ऊपर से देनी पड़ा। गाँव भर न विप्रजी की निंदा की, लेकिन मुँह पर नहीं। महाज' से सभी का काम पडता है, उसके मुंह कौन आये । शकर- सैकडे शकर ने सालभर तक कठिन तपस्या की। मियाद के पहले रुपये अदा करने का उसने व्रत-सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबेने पर बसर होती थी, अब वह भी बद हुआ, केवल लड़के के लिए रात को रोटियां रख दी जाती । पैसे रोज का तबाकू पी जाता था, यही एक व्यसन था जिसका वह कभी न त्याग कर सका था। अब वह व्यसन भी इस काठन व्रत की भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक्का तोड़ दिया और १३