पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१९७

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१९८ मानसरोवर तमाखू की हाड़ी चूर-चूर कर डाली । कपड़े पहले भी त्याग की चरम सीमा तक पहुंच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो गये। शिशिर की अस्थि-वेधक शीत को उसने आग तापकर काट दिया। इस ध्रुव- सकल्प का फल अाशा से बढकर निकला । साल के अत मे उसके पास ६०) जमा हो गये । उसने समझा, पडितजी को इतने रुपये दे दूंगा और कहूँगा महाराज, बाकी रुपये भी जल्द ही आपके सामने हाज़िर करूँगा । १५) की तो और बात है, क्या पडितजो इतना भी न मानेगे । उसने रुपये लिय और ले जाकर पडतजी के चरण-कमलों पर अर्पण कर दिये । पडितजी ने विस्मित होकर पूछा-किसी से उधार लिये क्या ? शकर-- नहीं महाराज, आरके अप्सीस से अबकी मजूरी अच्छी मिली। विप्र-लेकिन यह तो ६०) ही हैं । शकर-हाँ महाराज, इतने अभी ले लीजिए, बाकी मै दो-तीन महीने में दे दूंगा, मुझे उरिन कर दीजिए। विप्र-उरिन तो जभी होगे जब मेरी कौड़ी-कौडी चुका दोगे । जाकर मेरे १५) और लाओ। शंकर--महाराज, इतनी दया करो, अब सांझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी न कभी दे ही दूगा। विप्र-मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बाते करनी जानता हूँ । अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेगे तो श्राज से ३||) सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रुपये चाहे अपने घर में रक्खो, चाहे मेरे यहाँ छोड़ जात्रो । शकर - अच्छा, जितना लाया हूँ उतना रख लीजिए । मैं जाता हूँ, कहीं से १५) और लाने की फिक्र करता हूँ। शकर ने सारा गांव छान मारा, मगर किसी ने रुपये न दिये, इस लए नहीं कि उसका विश्वास न था, या किसी के पास रुपये न थे, बल्क इसलिए क पडतजी के शिकार को छेड़ने की किसी की हिम्मत न थी। ( ४ ) क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है । शकर सालभर तक तपस्या करने पर भी जब ऋण से मुक्त होने मे सफल न हो सका तो उसका सयम