पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२०५

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२०६ मानसरोवर न हुआ । रईस के आदमियो को प्रत्यक्ष रूप से रिशवत की चरचा करने की हिम्मत न पड़ती थी। आखिर जब कोई बस न चला, तो रईस की स्त्री ने. काय साहब की स्त्री से मिलकर सौदा पटाने की ठानी। रात के १० बजे थे। दोनों महिलाप्रो में बाते होने लगीं। २० हज़ार की बातचीत थी! राय साहब की पत्नी तो इतनी खुश हुई कि उसी वक्त राय साहब के पास दौड़ी हुई आई, और कहने लगीं ले लो! ले लो ! तुम न लोगे, तो मैं ले लूंगी। राय साहब ने कहा--इतनी बेसन न हो। वह तुम्हे अपने दिल में क्या समझेगी ? कुछ अपनी इज्जत का ख़याल भी है या नही ? माना कि रकम बड़ी है, और इससे मैं एकबारगी तुम्हारे पाये-दिन की फरमायशों से मुक्त हो जाऊँगा लेकिन एक सिविलियन की इजत भी तो कोई मामूली चीज नहीं है। तुम्हें पहले बिगड़कर कहना चाहिए था कि मुझसे ऐसी बेहूदा बातचीत करनी हो, तो यहां से चले जाओ। मै अपने कानों से नहीं सुनना चाहती। स्त्री- यह तो मैने पहले ही किया, बिगडकर खूब खरी खोटी सुनाई। क्या इतना भी नहीं जानती! बेवारी मेरे पैरों पर सर- रखकर रोने लगी। राय साहब-यह कहा था कि राय साहब से कहूँगी, तो मुझे कच्चा ही चबा जायेंगे ? हुए राय साहब ने गद्गद होकर पत्नी को गले लगा लिया । स्त्री- अजी, मैं न-जाने ऐसी कितनी ही बात कह चुकी, लेकिन किसी तरह टाले नहीं टलती । रो-रोकर जान दे रही है। राय साहब-उससे वादा तो नहीं कर लिया ? स्त्री-वादा ? मैं तो रुपये लेकर संदुक में रख पाई। नोट थे ! राय साहब-कितनी ज़बरदस्त अहमक हो, न मालूम ईश्वर तुम्हें कभी समझ भी देगा या नहीं। स्त्री-अब क्या देगा, देना होता, तो दे न दी होती। राय साहब-हाँ, मालूम तो ऐसा ही होता है । मुझसे कहा तक नहीं यह कहते