पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२०९

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समस्या मेरे दफ्तर मे चार चपरासी हैं। उनमें एक का नाम ग़रीब है। वह बहुत ही सीधा, बड़ा आज्ञाकारी, अपने काम में चौकस रहनेवाला, घुर कियाँ खाकर चुप रह जानेवाला, यथानाम तथा गुणः मनुष्य है। मुझे इस दफ्तर में सान भर होते हैं, मगर मैंने उसे एक दिन के लिए भी गैरहाजिर नहीं पाया। मै उसे ६ बजे दफ्तर में अपनी फटी दरी पर बैठे हुए देखने का ऐसा श्रादी हो गया हूँ कि मानों वह भी उसी इमारत का कोई अग है । इतना सरल है कि किसी की बात टालना नहीं जानता। एक मुसलमान है। उससे सारा दफ्तर डरता है, मालूम नहीं क्यो ? मुझे तो इसका कारण सिवाय उसकी बड़ी-बड़ी बातों के कुछ नहीं मालूम होता । उसके कथनानुसार उसके चचेरे भाई रामपूर रियासत मे काज़ी हैं, फूफा टोंक की रियासत मे कोतवाल हैं । उसे सर्वसम्मति ने 'काज़ी-साहेब' की उपाधि दे रखी है । शेष दो महाशय जाति के ब्राह्मण हैं । उनके आशीर्वादो का मूल्य उनके काम से कहीं अधिक है । यह तीनो कामचोर, गुस्तान और बालसी हैं । कोई छोटा. सा काम करने को भी कहिए तो बिना नाक-भौं सिकोडे नहीं करते। क्लकों को तो कुछ समझते ही नहीं। केवल बड़े बाबू से कुछ दबते हैं, यद्यपि कभी- कभी उनसे भी झगड़ बैठते हैं । मगर इन सब दुर्गुणों के होते हुए भी दफ्तर में किसी की मिट्टी इतनी खराब नहीं है जितनी बेचारे ग़रीब को। तरक्की का अवसर आता है तो यह तीनों मार ले जाते हैं, गरीब को कोई पूछता भी नहीं । और सब दस-दस पाते हैं, वह अभी छः ही में पड़ा हुआ है । सुबह से शाम तक उसके पैर एक क्षण के लिए भी नहीं टिकते, यहाँ तक कि तीनों चपरासी उसपर हुकूमत जताते हैं और ऊपर की आमदनी में तो उस बेचारे का कोई भाग ही नहीं। तिसपर भी दफ्तर के सब कर्मचारी- दफ्तरी से लेकर बड़े बाबू तक सब उससे चिढ़ते हैं, उसकी कितनी ही बार शिकायते हो चुकी हैं, कितनी ही बार जुर्माना हो चुका है और डोट डपट तो