घासी -- आज मुझे छुट्टी नहीं। हां सांझ तक आ जाऊँगा।
दुखी -- नहीं महाराज, जल्दी मर्जी हो जाय। सब सामान ठीक कर आया हूॅ। यह घास कहाँ रख दूँ?
घासी -- इस गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर जरा आराम करके चलूॅगा। हां, यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार खांची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौले में रख देना।
दुखी फौरन हुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक
को गोबर से लीपा। तब तक बारह बज गये। पडितजी भोजन करने चले
गये। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी ज़ोर की
भूख
लगी
पर वहाँ खाने को क्या धारा था। घर यहां से मील भर था। वहाँ खाने चला
जाय, तो पडितजी बिगड़ जायँ। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने
लगा। लकड़ी की मोटी सी गांठ थी; जिसपर पहले कितने ही भक्तों ने अपना
ज़ोर आज़मा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लाहे से लोहा लेने के
लिये तैयार थी। दुखी घास छीलकर बाज़ार ले जाता था। लकड़ी चीरने का
उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी। यहाँ
कस-कसकर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता; पर उस गांठ पर निशान तक
न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, हांपता था, थककर
बैठ जाता था, फिर उठता था; हाथ उठाये न उठते थे, पांव काँप रहे थे,
कमर न सीधी होती थी, आँखों तले अँधेरा हो रहा था, सिर में चक्कर आ
रहे थे, तितिलियाँ उड़ रही थी, फिर भी अपना काम किये जाता था। अगर
एक चिलम तबाकू पीने को मिल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।
उसने सोचा, यहाँ चिलम और तंबाकू कहां मिलेगी। बाम्हनों का पुरा है।
बाम्हन लोग हम नीच जातो की तरह तमाखू थोड़े ही पीते हैं। सहसा उसे
याद आया कि गांव में एक गोंड़ भी रहता है। उसके यहाँ ज़रूर चिलम-
तमाखू होगी । तुरत उसके घर दौड़ा। खैर मेहनत सुफल हुई। उसने तमाखू
भी दी और चिलम भी दी; पर आग वहां नथी। दुखी ने कहा -- आग की