पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२१४

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समस्या २१५ I1) मजदूरी तै की थी। जब काग़ज़ दफ्तर में गये तो उसने बड़े बाबू से TW) पैसे ठेलेवालों को देने के लिए वसूल किये। लेकिन दफ्तर से कुछ दूर जाकर उसकी नीयत बदली। अपनी दस्तूरी मांगने लगा। ठेलेवाले राज़ी न हुए। इस पर गरीब ने बिगड़कर सब पैसे जेब मे रख लिये और धमकाकर बोला--अव एक फूटी कौड़ी भी न दूंगा। जाओ, जहाँ चाहे फरियाद करो, देखे क्या बना लेते हो। ठेलेवालो ने जब देखा कि भेट न देने से जमा ही ग़ायब हुई जाती है, तो रो-धोकर चार आने पैसे देने पर राजी हुए। गरीब ने अठन्नी उनके हवाले की, !!) की रसीद लिखवाकर उनके अँगूठे के निशान लगवाये और रसीद दफ्तर मे दाखिल हो गई । यह कुतूहल देखकर मैं दग रह गया । यह वही गरीब है जो कई महीने पहले सरलता और दीनता की मूर्ति था, जिसे कभी चपरासियों से भी अपने हिस्से की रकम मांगने का साहस न होता था, जो दूसरों को खिलाना भी न जानता था, खाने का तो ज़िक्र ही क्या। यह स्वभावातर देखकर अत्यत खेद हुआ। इसका उत्तरदायित्व किसके सिर था! मेरे सिर जिसने उसे चघड़पन, धूर्तता का पहला पाठ पढ़ाया था। मेरे चित्त में प्रश्न उठा- इस कोइयाँपन से जो दूसरों का गला दबाता है, वह भोलापन क्या बुरा था जो दूसरों का अन्याय सह लेता था। वह अशुभ मुहूत था जब मैंने उसे प्रतिष्ठा-प्राप्ति का मार्ग दिखाया, क्यों'क वास्तव में वह उसके पतन का भयकर मार्ग था। मैंने बाह्य प्रतिष्ठा पर उसकी आत्म प्रतिष्ठा का बलिदान कर दिया ।