पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दो सखियाँ (१) लखनऊ 1-७-२५ प्यारी बहन, जबसे यहाँ आई हूँ, तुम्हारी याद सताती रहती है। काश तुम कुछ दिनो के लिए यहां चली पातीं, तो कितनी बहार रहती। मैं तुम्हें अपने विनोद से मिलाती। क्या यह सभव नहीं है ? तुम्हारे माता-पिता क्या तुम्हें इतनी आज़ादी भी न देगे। मुझे तो आश्चर्य यही है कि वेड़ियाँ पहन- कर तुम कैसे रह सकती हो। मैं तो इस तरह घटे भर भी न रह सकती। ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि मेरे पिताजी पुरानी लकीर पीटनेवालों में नहीं। वह उन नवीन आदशों के भक्त हैं, जिन्होने नारी-जीवन को स्वर्ग बना दिया है। नहीं तो मैं कहीं की न रहती। विनोद हाल ही में इंगलैड से डी० फिल० होकर लौटे हैं और जीवन- यात्रा प्रारभ करने के पहिले एक बार संसार-यात्रा करना चाहते है। योरोप का अधिकाश भाग तो वह देख चुके हैं, पर अमेरिका, आस्ट्रेलिया और एशिया की सैर किये बिना उन्हे चैन नहीं। मध्य एशिया और चीन का तो यह विशेष रूप से अध्ययन करना चाहते हैं। योरपियन यात्री जिन बातों की मीमासा न कर सके, उन्हीं पर प्रकाश डालना इनका ध्येय है। सच कहती हूँचदा, ऐसा साहसी, ऐसा निर्भीक, ऐसा आदर्शवादी पुरुप मैंने कभी नही देखा था। मै तो उनकी बातें सुनकर चकित हो जाती हूँ ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसका उन्हे पूरा ज्ञान न हो, जिसकी वह आलोचना न कर सकते हो; और यह केवल किताबी आलोचना नहीं होती, उसमें मौलिकता और नवीनता होती है। स्ततंत्रता के तो वह अनन्य उपासक हैं। ऐसे पुरुष की पत्नी बनकर ऐसी कौन सी स्त्री है, जो अपने सौभाग्य पर गर्व न करे। बहन, तुमसे क्या कहूँ कि प्रातःकाल उन्हें अपने बॅगले की ओर पाते देखकर मेरे चित्त की